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Monday, February 3, 2020

टल गया कूपमंडूकों का 'कुंभाभिषेकम'

File:Le temple de Brihadishwara (Tanjore, Inde) (14354574611).jpg
हमारे देश में तमिलनाडू में तंजावुर बृहदेश्वर मंदिर भारत के सबसे पुराने मंदिरों में से एक माना जाता है। भोसले राजवंश सरफोजी राजे ने प्रसिद्ध बृहदेश्वर मंदिर में दुनिया का सबसे बड़ा शिलालेख उकेरा है। यह बृहदेश्वर मंदिर पहले चोल राजा ने बनवाया था। इसे राजाराजेश्वरम मंदिर या पेरुवुडैयार मंदिर भी कहा जाता है। कावेरी नदी के दक्षिणी तट पर स्थित यह मंदिर शिव को समर्पित है और द्रविड़ (दक्षिणी) वास्तुकला का अत्युत्तम उदाहरण है। इसे दक्षिण मेरू भी कहते है। तमिल राजा राजराजा चोल द्वारा ईसाई सन  1003 और 1010 के दौरान निर्मित इस मंदिर को यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता दी है। इस मंदिर का महाकुंभाभिषेकम समारोह अत्यंत पवित्रमाना माना जाता है। तमिलनाडु के साथ-साथ देश भर के भक्तों के लिए इस आयोजन का बहुत महत्व है। यह समारोह इस वर्ष 6 फरवरी को है। लेकिन इसी समारोह को कुछ संकुचित लोगों की नज़र लगी और भाषा का बहाना बनाकर उसे खट्टा करने का प्रयास हुआ। सौभाग्य से मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा विवेकपूर्ण भूमिका अपनाने के कारण यह मुद्दा आग पकड़ते-पकड़ते रह गया। एक मामूली विषय पर समाज गुटों में परिवर्तित होने का संकट टल गया।  
हिंदुओं के महान मंदिर तमिलनाडु की शान हैं (कुछ सबसे बड़े ईसाई चर्च भी तमिलनाडु में हैं )। द्रविड़ आंदोलन के नाम पर नास्तिकों ने चाहे जितना भी परेशान किया हो, आज भी जनमानस पर इन मंदिरों का प्रभाव कायम है। देश के अन्य हिस्सों की तरह ही तमिलनाडु के मंदिरों में भी पूजा-अर्चना संस्कृत में होती थी। लगभग छह - सात दशकों पहले उपजे हुए द्रविड़ आंदोलन की दृष्टि में संस्कृत उत्तर भारत और अंततः आर्यों की भाषा है। इसलिए, द्रविड़वादियों का हठ था, कि संस्कृत या हिंदी का सभी स्तरों पर सफाया कर दिया जाना चाहिए और मंदिरों को भी इसमें शामिल किया गया। राज्य में कई मंदिर, विशेष रूप से सरकारी नियंत्रणवाले मंदिर, इसकी चपेट में आए और तमिल वहाँ दैनिक पूजा की भाषा बनी। हालांकि तंजावुर मंदिर जैसे मंदिर अपवाद बने रहे और इसका कारण यह है, कि इन मंदिरों का एक लंबा इतिहास है।
राजराजा चोल 
स्वयं तंजावुर मंदिर का इतिहास, जैसा कि ऊपर कहा गया है, कम से कम 1000  वर्ष पुराना है। चोल, चेर और पांड्य इन तमिल राजाओं का इतिहास गौरवमयी रहा है। ये सभी राजा संस्कृत को उदार प्रश्रय देनेवाले थे, यह यहाँ महत्वपूर्ण है। उनके तमिल अस्तित्व को संस्कृत से निकटता के कारण कोई बाधा नहीं पहुंची। इसलिए, उनके द्वारा बनाए गए मंदिर में संस्कृत मंत्रपठन की परंपरा कायम रही। वही परंपरा तथाकथित द्रविड़वादियों को चुभ रही थी। इसलिए किसी वकील ने मद्रास उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर मांग की कि तंजावुर के इस समारोह में केवल तमिल भाषा में ही मंत्रपठन हो। इस मामले पर उच्च न्यायालय ने पिछले सप्ताह निर्णय सुनाया। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि महाकुंभाभिषेकम के समारोह के दौरान, तमिल और संस्कृत दोनों भाषाओं के मंत्र कहे जाएं।
इसमें आनंददायक बात यह है, कि इस अवसर पर भाषा का बहाना बनाकर एक समुदाय में अलगाव पैदा करने का प्रयास असफल तो हुआ ही, साथ ही आम जनता से भी इन प्रयासों को समर्थन नहीं मिला। राज्य में विरोधी डीएमके पार्टी ने पहले 'केवल तमिल' की मांग की थी। उन्हें वाको जैसे नेताओं का समर्थन प्राप्त हुआ। दूसरी ओर, सत्ताधारी अन्ना द्रमुक पार्टी ने दोनों भाषाओं में मंत्रोच्चारण करने के पक्ष में मत दिया।
अब न्यायालय के आदेश के बाद भी नाम तमिळर कट्चि पार्टी के नेता सीमान जैसों ने 'अपनी ही सही' करने का पैंतरा लिया। दोनों भाषाओं में मंत्रोच्चारण अगर होना हो तो भी पहले मंत्रोच्चारण तमिल में ही हो, यह मांग उन्होंने की। हालांकि उसको समर्थन नहीं मिला। विद्वानों और सामान्य भक्तों ने इस ओर संकेत किया, कि इससे पहले महाकुंभाभिषेकम समारोह पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि के सत्ताकाल में (1997 में) हुआ था। उस अवसर पर इस मंदिर में वैदिक पंडितों की संस्कृत भाषा में मंत्रोच्चारण के साथ ही समारोह संपन्न हुआ था। करुणानिधि ने उसे रोका नहीं। चेन्नई मयिलाडुदुरै, रामेश्वरम, मदुरै  और कांचीपुरम जैसे प्रसिद्ध शिव मंदिरों में कुंभाभिषेकम संस्कृत भाषा में ही होता है। हिंदू परिवारों में भी जाप किया जाता है। इस पर कोई आपत्ति नहीं करता। पूजा और आरती के बाद तमिलनाडु में तिरुवासकम गाने की प्रथा है। यह स्तोत्र तमिल में ही।
परंपरावादियों की ओर से एक और तर्क रखा गया, कि तमिल भाषा के विकास का दावा करनेवाले सब लोग स्वयं बड़े हुए। दिनमलर नामक समाचारपत्र में प्रकाशित एक लेख में कहा है, कि मस्जिदों में अरबी में प्रार्थना होती है और चर्च में अंग्रेजी प्रार्थना होती है। वहां जाकर कहो, 'तमिल में उपासना करो'। यह कुंभ समारोह आगम शास्त्र के अनुसार होता है। इसमें पूजा कैसे हो और किस प्रकार की हो, इसका मार्गदर्शन है। मंदिरों में हजारों वर्षों से इसी के अनुसार पूजा की जाती है। एक बात हमें समझनी चाहिए, कि पूजा पद्धति और उपासना अलग-अलग हैं। दि. वे. चंद्रशेखर शिवाचार्यर नामक पंडित ने मत व्यक्त किया है, कि हम परमेश्वर की उपासना करते है वह किसी भी भाषा में हो सकती है। लेकिन पूजा पद्धति के कुछ नियम है और उनका पालन किया जाना चाहिए। उन्होंने यह जानकारी भी दी है, कि जिन लोग को मंदिर में तमिल में पूजा करना चाहते हैं उनके लिए पूजारी को तमिल में पूजा करवाने का नियम है। लेकिन 99% लोग तमिल में पूजा करने के लिए नहीं कहते हैं; वे संस्कृत की मांग करते है।
संस्कृत की ओर से मत रखनेवालों की एक और आपत्ति है, कि बृहदेश्वर मंदिर में तमिल को सम्मान मिलें इसके लिए कमर कसनेवाले सारे लोग नास्तिक है। तमिल के लिए मैदान में उतरनेवाले सारे लोग भगवान को नकारनेवाले हैं। लोग ईश्वर में विश्वास करते हैं और भाषा उनका अधिकार है। लेकिन इन दोनों को रौंदकर ये लोग अपनी ही सही करवाने का प्रयास कर रहे हैं। इस का मतलब है, कुछ नेता और प्रसिद्धी के लिए बेताब होनेवाले कुछ तमिल आंदोलक तिल का ताड़ बना रहे है। 
उच्च न्यायालय ने इस विवाद को चाय की प्याली में उभरा हुआ तूफान बना  दिया। लेकिन इससे एक और बात स्पष्ट होती है। वह है क्षेत्रीय सीमाओं को पार करने की संस्कृत की शक्ति। चोल राजराजा प्रथम वास्तव में सम्राट थे। उत्तरी भारत के कुछ हिस्सों, श्रीलंका, मालदीव और पूर्वी एशिया के कुछ हिस्सों पर उसने सन 985 और 1014 के बीच शासन किया। राजराजा चोल ने जब बृहदेश्वर मंदिर का निर्माण किया, तो उसका राज्य वर्तमान तमिलनाडु, केरल, आंध्र, कर्नाटक और ओडिशा तक फैला था। उसके पुत्र राजेंद्र चोल ने तो बंगाल में भी अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। यानी यह राजा केवल तमिल लोगों पर नहीं बल्कि करोड़ों गैर – तमिल लोगों पर राज्य करता था। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इन सबसे संवाद करने के लिए चोल राजाओं को संस्कृत भाषा सही लगी! एक तरह से संस्कृत उनके लिए राष्ट्रीय भाषा थी और इसलिए उनके समय से ही इस मंदिर में संस्कृत मंत्रपठन जारी है। न्यायालय ने इस मामले का संज्ञान लिया और तमिल की गरिमा को ध्यान में रखते हुए दोनों भाषाओं में समारोह करने की अनुमति दी। इस बहाने कूपमंडूकों का कुंभाभिषेकम तो टल गया, इतना काफी है!

Monday, December 25, 2017

धर्मं चर, ख्रिस्तं अनुचर

गेली एक-दोन वर्षे मी बायबल वाचत आहे. संस्कृतमधून. मुळात बायबल हे एक पुस्तक नसून ते 27 पुस्तकांचा एक संग्रह आहे. त्यामुळे या प्रत्येक पुस्तकाची एक वेगळी मौज आहे.


बायबलमधला येशु ख्रिस्त हा देवाचा पुत्र आहे. एकूण बायबल वाचले तर येशूची कहाणी ही करुण रसाने ओथंबलेली दिसते. तो नेहमी स्नेहाळ भाषेत बोलतो. तो ठायी ठायी श्रद्वावंतांना आवाहन करतो. मात्र येशूवर विश्वास ठेवणारेच तरतील, असे बायबल म्हणते. धर्माऐवजी तिथे श्रद्धेला जास्त महत्त्व आहे. विश्वास न ठेवणारे खितपत पडतील, असे बायबल बजावून सांगते.


ईश्वर, येशू आणि पवित्र आत्मा (होली घोस्ट) हे तीन सत्य आहेत, येशू हा ईश्वराचा एकुलता एक पुत्र आहे आणि क्रूसावर मरण आल्यावर त्याचे पुनर्जीवन झाले, या ख्रिस्ती धर्माच्या तीन मुलभूत श्रद्धा आहेत. या श्रद्धा न बाळगता कोणीही ख्रिस्ती असू शकत नाही.


ईश्वर श्रेष्ठ आहे, असं म्हणायची तयारी असेल तर तुम्हाला पूर्ण तारण्याची तजवीज बायबल करते. खालील वाक्यांचा मासला पाहा,




  • असाध्यं मनुष्याणां, न त्वीश्वरस्य। (असाध्य मानवांना आहे, ईश्वराला नाही).
    सर्वमेव शक्यं विश्वसता। तव विश्वासं त्वां तारयामास। (श्रद्धेने सर्व शक्य आहे. तुझी श्रद्धा तुला तारेल.)

  • न केवलेन पूपेन मनुष्यो जीविष्यति अपि ईश्वरस्य येन केनचिद् वचनेन (मनुष्य केवळ पैशावर जगत नाही, तर ईश्वराच्या एखाद्या वचनावर जगतो.)

  • निजेईश्वरस्य प्रभोर्भजना त्वया कर्तव्या, एकश्च स एव त्वयाराधितव्यः। (तू केवळ आपल्या ईश्वराचे भजन केले पाहिजेस. तू फक्त त्याची आराधना केली पाहिजे.)

  • चिकित्सको न स्वस्थानाम् अपि तु अस्वास्थानाम् आवश्यकः। न धार्मिकान् अपि तु मनःपरावर्तनाय पापिन् आव्हातुम् अहम आगतः। (वैद्य निरोगी लोकांना नव्हे, तर आजारी लोकांसाठी आवश्यक असतो. मी धार्मिक लोकांचे नाही तर पापी लोकांच्या मनाचे परिवर्तन करण्यासाठी आलेलो आहे.)

  • किमर्थं वा यूयं मां प्रभो प्रभो इत्यभिभाषध्वे न तु मद्वाक्यानुरूपाचरणं कुरूथ? (तुम्ही मी सांगतो तसे वागत नाही, तर मला प्रभू प्रभू तरी का म्हणता?)

  • ईश्वरस्य धनस्य चोभयोर्दास्यं कर्तुं युष्माभिर्न शक्यते। (ईश्वर आणि धन या दोहोंचीही गुलामी तुम्ही करू शकत नाही).

  • मत्तः पृथक् युष्माभिः किमपि कर्तुं न शक्यते (माझ्यावाचून तुम्ही काहीही करू शकत नाही.)

  • अहमेव पन्थाः सत्यश्च जीवनश्च, नान्योपायेन मनुष्यः पितुः समीपमायाति। केवलं मया। (सत्य आणि जीवनाचा मीच मार्ग आहे. अन्य कोणत्याही उपायाने मनुष्य पित्याजवळ (देवाजवळ) जाऊ शकत नाही. केवळ माझ्या माध्यमातून जातो.)

  • सत्यं मयानुभूयते यद् ईश्वरो न पक्षपाती अपि तु सर्वस्यां जात्यां यः तस्माद् बिभेति धर्ममाचरति च स तस्य ग्राह्यः। (हे सत्य मी अनुभवले आहे, की ईश्वर पक्षपाती नाही, परंतु जो जीव त्याला भितो आणि धर्माचे आचरण करतो तो त्याला ग्राह्य ठरतो.)

  • यदि त्वं ‘यीशुं प्रभुरूपेण‘ स्वयं अंगीकरोषि तथा च मनसा यं स्वीकरोषि यत् परमेश्वरेण एव मृतेषु जीवेषु स: जीवित: कृत: तर्हि निश्चयरूपेण त्वम् उद्धरसि (तू येशूला प्रभू म्हणून स्वतः मान्य केलेस आणि परमेश्वरानेच त्याला मृत्यूनंतर जीवंत केले, हे मनाने अंगीकारलेस, तर तू तुझा उद्धार निश्चितच करशील – रोमिणस्य पत्रम् 10:9)


या उलट बायबलच्या तुलनेत भगवद्गीता किंवा पुराणांमध्ये अधिक भावनिक ओलावा. येशू हा देवपुत्र आहे, त्यामुळे तो नेहमीच एका उंचीवर राहतो. याउलट भागवतातील श्रीकृष्ण एकाच वेळेस बालक, खोडकर मुलगा, किशोर, प्रेमी, राजकारणी असे बरेच काही आहे. श्रीरामाच्या बाबतीतही हेच. त्यामुळे तुम्ही त्यांना कोणत्याही रीतीने भेटू शकता. त्यामुळे संतांचा पांडुरंग एकनाथांच्या घरी पाणी भरी शकतो आणि जनाबाईच्या घरी दळण-कांडण करू शकतो. त्यात त्याची मानहानी झाली किंवा अवमान झाला, असे कोणाला वाटत नाही. म्हणूनच भगवद्गीतेत विश्वरूपदर्शन पाहिलेला अर्जुन श्रीकृष्णाची माफी मागतो. मी तुला मित्र समजून तुझी थट्टा केली, बोलू नये तो बोललो, असे खजील होऊन म्हणतो. तेव्हा श्रीकृष्ण नुसतेच हसून तो विषय टाळतो, त्याची निर्भर्त्सना करत नाही.


त्यापेक्षाही म्हणजे या ग्रंथांमध्ये बौद्धिक स्वातंत्र्य अधिक आहे. “यः तस्माद् बिभेति धर्ममाचरति च स तस्य ग्राह्यः” असे ते म्हणत नाहीत. धर्मभीरू किंवा पापभीरू नावाचा प्रकार हिंदू संस्कृतीत नाही. उलट “यो यथा मां भजति तांस्तथैव भजाम्यहम्” असे भगवद्गीता म्हणते.


अगदी “मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरू” असे म्हणणारा श्रीकृष्ण भगवद्गीतेत शेवटी अर्जुनाला म्हणतो, “इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्‌गुह्यतरं मया। विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥18- 63॥” (हे मला माहीत असलेले गुप्तातील गुप्त ज्ञान तुला निःशेष दिले आहे. यानंतर तुझी जी इच्छा असेल ते कर.)


सत्यं वद, धर्मं चर (खरे बोल, धर्माचे आचरण कर) हा हिंदू जीवनपद्धतीचा संदेश आहे. (येथे धर्म म्हणजे वागणुकीचा कायदा, कर्मकांड नव्हे). म्हणजे ईश्वरावर श्रद्धा न बाळगता केवळ धर्म पाळल्याने मनुष्य हिंदू असू शकतो. म्हणूनच भगवद्गीतेत चौथ्या अध्यायात श्रीकृष्ण म्हणतो, ”त्रैगुण्यविषया वेदा निस्रैगुण्य भवार्जुन”. म्हणजे साक्षात वेद हेच त्रिगुणांबाबत बोलतात पण तू या तीन गुणांच्या पलीकडे जा, असे तो सांगतो. याचाच अर्थ जीवनाचा अर्थ लावताना वेदांचेही प्रामाण्य नाकारण्यात त्याला फार काही वाटत नाही. पण ख्रिस्तं अनुचर (ख्रिस्ताचे अनुसरण कर) हा बायबलचा संदेश आहे.


आता धर्माचे अनुसरण करायचे का श्रद्धेने जगायचे, हा ज्याचा त्याचा प्रश्न आहे.