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Saturday, March 16, 2019

नाकारों के नकारों पर सवार कांग्रेस

कहते हैं, कि जो लोग अपनी गलती से सीखते है वे साधारण होते है। जो दूसरों की गलतियों से सीखते है वे बुद्धिमान होते है लेकिन जो ना अपनी और ना दूसरों की गलतियों से सीखते है वे मूर्ख होते है। कांग्रेस पार्टी का हाल कुछ इस तीसरे वर्ग के लोगों जैसा है। अपनी पुरानी शिकस्तों और वर्तमान राजनीतिक सूझबूझ से वह कुछ भी सीखने के लिए तैयार नहीं है।
एक तरफ कांग्रेस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने की बात करती है जबकि अपने इस लक्ष्य के लिए दूसरी पार्टियों को साथ लेने के लिए वह तैयार नहीं है! सारे राजनीतिक विश्लेषक एक सूर में यह कहते हैं, कि कांग्रेस का अहंकार उसको डुबानेवाला है। राहुल गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी में बिठाने के लिए कांग्रेस के कार्यकर्ता इतने लालायित है कि उसके लिए पूरी तैयारी करने की भी तैयारी में नहीं दिखा रहे। जंग में जीतने का उनको इतना विश्वास है कि जंग की तैयारी करना वे ज़रूरी नहीं समझते।


शुक्रवार को कांग्रेस ने कहा कि पश्चिम बंगाल सहित जिन राज्यों में गठबंधन को लेकर प्रयास हो रहे हैं, वहां किसी तरह की समस्या नहीं है। पार्टी प्रवक्ता पवन खेड़ा ने यह भी कहा, कि विपक्षी दलों का मकसद प्रधानमंत्री मोदी को हटाना नहीं बल्कि देश को बचाना है।


उन्होंने बताया कि, ‘‘हमारा मकसद मोदी जी को हटाना नहीं है। हमारा मकसद देश को बचाना है, संस्थाओं को बचाना है। सबकी स्वतंत्रता को बचाना है। जिस व्यक्ति विशेष को लेकर भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव को व्यक्तिवाद का चुनाव बनाना चाहती है, उस व्यक्ति में ही कोई विशेषता लोगों को नहीं दिखती, तो वो कैसा व्यक्ति विशेष है? ’’


खेड़ा ने कहा, ‘‘ये बड़ा स्पष्ट है कि जहां भी हमारी गठबंधन की बात चल रही है, जिन राज्यों में चल रही है, कहीं कोई समस्या नहीं है, बातचीत चल रही है, बातचीत में जितना समय लगता है, उतना लगता है।’’


इस पूरे कथन को पढ़ने के बाद दो बातें पूरी तरह से समझ आती है। एक तो कांग्रेस में नाकारे नेताओं की भरमार है जिनका अपना कोई जनाधार नहीं है। दूसरी बात यह, की ज़मीनी सच्चाई स्वीकार करने की मानसिकता इन नेताओं में अभी भी नहीं है। अगर भाजपा का प्रचार व्यक्ति विशेष (नरेंद्र मोदी) को केंद्र में रखकर है तो कांग्रेस कहां लोकतांत्रिक परंपराओं का निर्वाह कर रही है। बल्कि वहां तो पार्टी का पूरा खाका ही एक परिवार विशेष पर खड़ा है। मोदी ने 12 वर्ष गुजरात में और पांच वर्ष केंद्र में सरकार चलाते हुए अपना सिक्का चलाया है। तब जाकर भाजपा ने उन्हें अपना नेता बनाया है। राहुल गांधी ने अब तक किया क्या है जिसके बूते कांग्रेस उन्हें अपना मसीहा मानती है?


रही बात गठबंधन की, तो राजनीति पर थोड़ी सी भी नजर रखने वाले किसी भी निरीक्षक से पूछिए। वह आपको बताएगा कि कांग्रेस का गठबंधन का हर प्रयास विफल रहा है। पिछले वर्ष मई महीने में कर्नाटक में अधिक सीटें मिलने के बाद भी कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष जनता दल को मुख्यमंत्री पद देकर उदारता दिखाई थी। देश में मोदीविरोधी लगभग हर नेता उस अवसर पर उपस्थित था और तथाकथित सेकुलर दलों के नेताओं द्वारा उठाए गए हाथों की वह तस्वीर अभी भी लोगों के मन से हटी नहीं है। हालांकि उस तस्वीर से उभरी हुई आशाएं एक वर्ष के भीतर ही धूमिल हो चुकी है क्योंकि उस वक्त कांग्रेस ने जो सूझबूझ दिखाई थी आज उसका नामोनिशान तक दिखाई नहीं देता। इसी का कारण है, कि हर नेता, हर कुनबा, हर खेमा और हर पार्टी कांग्रेस से खफा है।
पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कांग्रेस से गठबंधन करने में बिल्कुल रुचि नहीं रखती। बल्कि उन्होंने तो राज्य में सभी चुनाव क्षेत्रों के लिए अपने उम्मीदवार घोषित कर दिए हैं। दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल गठबंधन के लिए कांग्रेस से गुहार कर कर के थक गए लेकिन कांग्रेस ने उन्हें घास नहीं डाली। बिहार में अगर कांग्रेस राजद से गठबंधन कर भी लेती है तो भी उसका कितना असर होगा यह भगवान ही जाने क्योंकि राजद प्रमुख लालू यादव इस वक्त जेल में है। कर्नाटक में जिस गाजेबाजे के साथ कांग्रेस ने जेडीएस से गठबंधन किया था वह उत्साह नदारद है क्योंकि वहां जेडीएस अपने कुनबे में लगी आग को बुझाने में व्यस्त है। देवेगौडा परिवार अंदरूनी झगड़ों से परेशान है। ऊपर से पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की महत्वाकांक्षा इस गठबंधन को कमजोर करने में लगी हुई है। आंध्र प्रदेश में मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने कांग्रेस से गठबंधन कर के तेलंगाना के विधानसभा चुनाव लड़े थे लेकिन वहां इस गठबंधन को मुंह की खानी पड़ी जिसके कारण नायडू भी कांग्रेस से नजदीकी बढ़ाने में ज्यादा रस लेते हुए नहीं दिखते। हालांकि तमिलनाडु में डीएमके के साथ हाथ मिलाने में कांग्रेस को थोड़ी बहुत सफलता मिली है और इसी सफलता पर पार्टी इतरा रही है।


एक पूरी पार्टी की पार्टी एक ही परिवार पर निर्भर हो और जनाधार रखने वाले नेताओं का अकाल हो तो वास्तविकता को नकारनेवाले नेताओं की तूती तो बोलेगी ही। ऐसे नकारों पर सवार कांग्रेस की नैया डूबना तय है।

Thursday, March 7, 2019

लाचार केजरीवाल और ठगे हुए समर्थक

दिल्ली में आगामी लोकसभा चुनावों के लिए कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) के बीच संभाव्य गठबंधन पर पूर्णविराम लग चुका है। दिल्ली प्रदेश कांग्रेस ने राज्य में सातों लोकसभा सीटों के लिए आप के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन होने की संभावना मंगलवार को नकार दी। इन सातों सीटों पर भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनावों में विजय प्राप्त की थी। ऐसे में कांग्रेस और आप में मतों का विभाजन हुआ तो भाजपा को इस बार भी लाभ मिल सकता है। एक हिंदी टेलीविजन चैनल द्वारा सोमवार को किए गए सर्वेक्षण में बालाकोट के हवाई हमलों के बाद विशेष रूप से भाजपा की स्थिति मजबूत होने की पुष्टि की गई।


मंगलवार को दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष शीला दीक्षित के साथ-साथ कांग्रेस के अनेक वरिष्ठ नेताओं की बैठक पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी के साथ हुई। इस अवसर पर स्थानीय नेताओं ने आप से गठबंधन न करने का आग्रह किया और राहुल गांधी ने भी इससे सहमति जताई। श्रीमती दीक्षित ने कहा, कि 'हमने आम सहमति से निर्णय किया, कि आम आदमी पार्टी से गठबंधन नहीं करनी है और अपने बल पर चुनाव लड़ने है।' अहमद पटेल और पी. सी. चाको जैसे कुछ नेता आप से गठजोड़ करने के पक्ष में थे, लेकिन कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने इसका जोरदार विरोध किया। पंजाब कांग्रेस ने भी आप से किसी भी प्रकार गठबंधन करने से मनाही की। आप ने 2014 के चुनाव में पंजाब में 4 लोकसभा सीटों पर विजय प्राप्त की थी।


कांग्रेस के इस ताजा निर्णय से दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप के प्रमुख अरविंद केजरीवाल तिलमिला गए। उन्होंने सीधे आरोप किया, कि कांग्रेस भाजपा की मदद कर रही है। उन्होंने ट्वीट किया, कि 'सारा देश मोदी और शहा को हराने के लिए एकत्र आया है, ऐसे में कांग्रेस भाजपाविरोधी मतों का विभाजन कर भाजपा की सहायता कर रही है।' इतना ही नहीं, उन्होंने संदेह जताया, कि कांग्रेस ने भाजपा से कोई गुप्त समझोता किया है।


केजरीवाल इस गठबंधन के लिए अत्यंत लालायित थे। इससे पूर्व भी उन्होंने गुहार लगाई थी, कि मैं कांग्रेस के दरवाजे पर खड़े रहकर थक चुका हूं लेकिन कोई हमारी सुध नहीं लेता। केवल दो सप्ताह पूर्व 16वीं लोकसभा के अंतिम सत्र के अंतिम दिन विरोधी दलों द्वारा आयोजित सभा में भी केजरीवाल ने हिस्सा लिया था। इस सभा की मेजबानी ही आप के पास थी। वरिष्ठ कांग्रेस नेता आनंद शर्मा का केजरीवाल ने मंच पर स्वागत भी किया था। आज वही केजरीवाल 'अच्छा सिला दिया मेरे प्यार का' का राग आलापते हुए कांग्रेस को कोस रहे है।


एक समय था जब इसी कांग्रेस के खिलाफ जंग छेड़कर केजरीवाल ने देशवासियों का ध्यान आकर्षित किया था। कांग्रेस, खासकर शीला दीक्षित, भ्रष्टाचार की प्रतीक है यह बात उन्होंने पुरी शिद्दत से रखी थी। भ्रष्टाचार उन्मूलन और स्वच्छ राजनीति ही हमारा कार्यक्रम है, यह कहते हुए उन्होंने दिल्ली की सत्ता हथियाई थी। आज उसी कांग्रेस से नजदीकियां बढ़ाने के लिए केजरीवाल जद्दोजहद करते हुए दिखाई दे रहे है। राजनीति का चरित्र बदलने की भाषा करनेवाले नेता का चरित्र ही बदलते हुए देश देख रहा है। एक नायाब अवसरवादी के तौर पर केजरीवाल सामने आ रहे है। एक ऐसा नेता जो सत्ता के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकता है।


वास्तव में राजनीति सत्ता के लिए ही होती है। कम से कम आज के जमाने में तो यही देखने को मिलता है। लेकिन केजरीवाल ने हमेशा से ऐसा दिखाया है, कि जैसे भ्रष्टाचार विरोध की मशाल वे हाथ में थामे हुए चल रहे है। बढ़ी शातिरता से बनाई गई तस्वीर में अब दरारें आने लगी है।


केजरीवाल के पलटाव से उनके समर्थकों में खलबली मचना स्वाभाविक ही था। कुमार विश्वास जैसे उनके समर्थकों ने इस असंतोष को मार्ग दिखाया है। उन्होंने ट्विटर पर केजरीवाल पर निशाना साधते हुए उन्हें भिखारी की मिसाल दी।





वैसे भी अन्ना हजारे को आगे करते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में शामिल अधिकांश सहयोगी केजरीवाल को छोड़कर जा चुके है। केजरीवाल द्वारा पार्टी में तानाशाही चलाने का आरोप करने के बाद प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को अपमानजनक ढंग से पार्टी की कार्यकारिणी से निकाल दिया गया। उसके बाद एडमिरल एल. रामदास को पार्टी के अंतर्गत लोकपाल पद से त्वरित प्रभाव से बर्खास्त किया गया। पूर्व पत्रकार आशुतोष और कपिल मिश्रा कागजी तौर पर आज भी पार्टी में है लेकिन उनका अधिकांश समय नेतृत्व की आलोचना करने में बीतता है। विनोदकुमार बिन्नी, शाझिया इल्मी, जी. आर. गोपीनाथ, एस. पी. उदयकुमार, अशोक अग्रवाल और अंजली दमानिया जैसे सूरमा आज पार्टी से दूर है, जबकि किरण बेदी ने सीधे भाजपा का संग साधकर पुदुच्चेरी के राज्यपाल का पद प्राप्त किया।


यह तो बात हुई प्रमुख नेताओ की, फिर कार्यकर्ताओं के क्या हाल होंगे ? दूसके स्वतंत्रता संग्राम का नाम देकर दिल्ली के जंतर मंतर पर आंदोलन में उतरनेवाली एक पूरी पिढ़ी अब ठगा हुआ सा महसूस कर रही है। स्वतंत्रता संग्राम से नाता होने का दम भरनेवाली कांग्रेस को भ्रष्ट होने में चार दशक लगे, पार्टी विथ डिफरन्स कहलानेवाली भाजपा को सत्ताकांक्षी होने में तीन दशक लगे। लेकिन स्वच्छ चारित्र्य और शुचिता की हामी भरनेवाली आप का पतन होने में एक दशक से भी कम समय लगा। केवल केवळ आठ वर्षों में आप का सफर जिस पार्टी को बुरा-भला कहते हुआ उसका जन्म हुआ उसी पार्टी की ओर हो रहा है। इसे लोकतंत्र का खेल कहें या विडंबना?

Thursday, August 2, 2018

When Political Motives Turn Shameless....

The anxiety and political motives of West Bengal Chief Minister Mamata Banerjee are turning into shamelessness with every passing day. Her brazenness has reached such a state that she is openly threatening the government and the nation of a possible civil war. The lady who was once hailed as a fiery leader has metamorphosed into a militant leader.


Banerjee on Tuesday alleged that the National Registrar of Citizens (NRC) exercise in Assam was done with a "political motive" to divide people and warned that “it would lead to bloodbath and a civil war in the country.”


As has become her habit for quite a time, she attacked the central government and BJP also saying that the saffron party was trying to divide the country and asserted this will not be tolerated.
"The NRC is being done with a political motive. We will not let this happen. They (BJP) are trying to divide the people. The situation cannot be tolerated. There will be a civil war, blood bath in the country," Banerjee told a conclave.



SC-Driven Exercise


The massive Supreme Court-monitored exercise to identify genuine Indian nationals living in Assam excluded over 4 million people from the final draft list. The issue rocked both house of Parliament after which Home Minister Rajnath Singh appealed to the opposition not to politicize the sensitive matter as the list has been published on the directives of the SC and the Centre had "no role" in it.


He asserted that no "coercive" action would be taken against those whose names were excluded from the NRC draft list.


The truth of the matter is that TMC, like Congress and left parties, has nurtured a culture of illegal immigrants and infiltrators. These parties owe their existence and success to this dubious voter base. They can hardly afford to alienate them. That is why Banerjee and her ilk make a hue and cry over the issue. Joining them with chorus is Congress Party. Yes, that same old party which has lately habituated itself to play second fiddle to strong regional forces.


It is a hard-established fact that India is suffering from illegal immigrants for decades. The problem dates as back as Nation's independence. Even past prime ministers like Indira Gandhi and Rajiv Gandhi have appreciated this fact and vowed to eradicate this menace. Security experts have pointed out a number of times the risks involved in allowing infiltrators a free access to the country. Besides eating up a sizable chunk of resources, these infiltrators have caused huge population explosion. Rather, this inhibited infiltration is said to be one of the main reason of India's population after 1980s and 90s. This was also the time when the successive central governments were weak and the country witnessed a number of terrorist attacks.


It is true that the first waves of illegal immigrants came to India owing to their poverty in search of livelihood and security, due to extreme poverty and unemployment. . It is also true that the first settlers were, if we may say so, consisted of Muslim as well as Rhodium Libreus. However, once it was seen that India is a very open country that welcomed immigrants from every side, the trickle soon turn into a stream. And soon, the camel enjoyed hospitality of the tent while his owner had to live in the open ground.


With central governments showing little interest to find a solution to the infiltration problem and state governments willing partner in the crime, it ultimately became one of the biggest security concerns for India. Many of the illegal immigrants were found involved in nefarious activities like human trafficking, counterfeit currency and drug trade. Gradually, the professed secular parties turned these groups into captive vote banks. They not only harbored these groups but also actively encouraged them to flourish. It is no secret that these secular parties encouraged illegal migration and encouraged them to get citizenship of India. Many leaders of these parties procured jobs, even government jobs, to them. This was the classic modus operandi in Kashmir, Assam and West Bengal.



Disappearing Vote Banks


It is this vote bank that Mamata Banerjee is seeing being eroded with a single stroke of national register of citizenship (NRC). All the noise that she is making is because of this. Mamata is terrified even with the thought of deporting illegal migrants as they form the core of her 'constituency'. She became hysterical the moment Assam government announced the NRC list in which 4 million people were identified as aliens. Even assuming that this list will be modified and a half of them are retained, yet Congress, TMC and Left will lose 2 million voters.


This is why they are spewing venom on government accusing the latter of dividing the country. This same gang opposed deporting Rohingya Muslims even after conclusively proving that they had terrorist affiliations.


Notwithstanding these theatrics, the citizens of this country vehemently support the move regardless of the fact that it was carried out on Supreme Court’s order and not by the government itself. This long pending and much needed development will have serious repercussions. Most importantly, it has bared open the groups that think in national interest and those otherwise.

Tuesday, July 31, 2018

‘एनआरसी’वर तडफड? नव्हे, 2019ची बेगमी!

लोकसभेची निवडणूक जसजशी जवळ येईल, तसतसे ‘लोकशाहीवादी’ पक्षांचे अनेक रंग उडून मूळ स्वरूप उघडे पडत जाणार आहे. प्रत्येक मुद्द्याला राजकीय रंग देऊन स्वतःलाच चिखलात अडकविण्याचे प्रयत्न हे पक्ष करणार आहेत. नॅशनल रजिस्टर ऑफ सिटीझन्सच्या मुद्द्यावर हे पक्ष करत असलेला थयथयाट हा त्या भविष्याची एक चुणूक आहे.


आसामच्या नागरिकांची गणती करण्यासाठी तयार केलेल्या नॅशनल रजिस्टर ऑफ सिटीझन्स (एनआरसी) याच्या मसुद्याचा दुसरा भाग बाहेर पडला आणि लिबरल डोंबाऱ्यांनी आपला जुनाच खेळ सुरू केला. या रजिस्टरमध्ये आसामच्या रहिवाशांची नावे आहेत आणि हे रजिस्टर काही कालावधीनंतर अपडेट करण्यात येते. याचाच अर्थ त्यात सुधारणा करता येऊ शकते.


आताच्या ताज्या रजिस्टरचे काम 2014 मध्ये सुरू झाले आणि ते 2016 पर्यंत सुरू होते. या दरम्यान एकूण 3.29 कोटी लोकांनी नागरिकत्वासाठी अर्ज केला होता. आपण आसामचे रहिवासी आहोत असा त्यांचा दावा होता. या वर्षीच्या जानेवारीत या रजिस्टरचा पहिला मसुदा बाहेर पडला होता. त्यात 1.90 कोटी लोकांना आसामचे रहिवासी म्हणून मान्यता मिळाली होती. त्याही वेळी मोठा गदारोळ उठला होता. मात्र अजून अंतीम यादी बाहेर यायची असून पूर्ण छाननी झाल्यानंतर यादी बाहेर येईल, असे सरकारने तेव्हा सांगितले होते. सोमवारी या रजिस्टरचा दुसरा भाग बाहेर पडला. त्यातील माहितीनुसार 40 लाख लोकांचे नागरिकत्व हरविण्याची शक्यता निर्माण झाली आहे.


अन् याच कारणावरून विरोधी शिबिरांमध्ये खळखळ सुरू झाली आहे. ज्या चाळीस लाख लोकांची नावे या यादीतून गळाली आहेत, त्यांनी यासंदर्भात आवाज काढणे समजू शकता येईल. परंतु चहापेक्षा किटली गरम या म्हणीला अनुसरून या संशयास्पद नागरिकांऐवजी विरोधी पक्षांनाच जास्त कंठ फुटला आहे. नेहमीप्रमाणे या आक्रस्ताळलीलेचे नेतृत्व पश्चिम बंगालचे मुख्यमंत्री ममता बॅनर्जी करत आहेत. त्या तर पहिली यादी बाहेर पडली तेव्हापासून अस्वस्थ आहेत. त्यांच्या पक्षाने या विषयावर लोकसभेत स्थगन प्रस्तावाचीही नोटीसही दिली होती. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन यांनी ती स्वीकारला नाही हा भाग अलाहिदा. त्या नकारावरील ममतांचा जळफळाट शमत नाही तोच आता हा दुसरा आघात झाला आहे. आपले हक्काचे चाळीस लाख मतदार एका फटक्यात हरविण्याच्या भीतीने त्यांच्या तोंडचे पाणी पळाले आहे. एखाद्या व्यक्तीने निगुतीने आपले डबोले एखाद्या झाडाखाली पुरून ठेवावे आणि महापुरात त्या झाडासकट डबोलेही वाहून जावे, अशी त्यांची गत झाली आहे.


वास्तविक हा प्रश्न आसामचा. आसाम आणि बंगाल हे शेजारी राज्य आहेत. आसाममध्ये मोठ्या संख्येने बंगाली लोक राहतात आणि उलट बंगालमध्ये मोठ्या संख्येने सामील लोक राहतात, ही गोष्ट खरी आहे. पण त्यामुळे आसामच्या विषयांमध्ये नाक खुपसण्याचे ममताना काही कारण नाही. परंतु या विषयावर बंगाली कार्ड खेळण्याची चाल ममतांनी खेळली आहे. एनआरसीच्या विषयात केंद्र सरकारने ममतांना विश्वासात घेतले नाही, असे त्यांच्या पक्षाचे खासदार डेरेक ओब्रायन म्हणाले. आता हा एनआरसीचा विषय सर्वोच्च न्यायालयाच्या आदेशावरून सुरू झालेला, त्याची व्याप्ती आसाममधली आणि त्यासाठीची सर्व रसद केंद्र सरकारने दिलेली. यात ममता बॅनर्जी यांची भूमिका कुठून येते, हे त्यांचे त्यांनाच माहीत.


“भाजप सरकारने ज्या चाळीस लाख रहिवाशांची नावे वगळली आहेत त्यातील बहुतांश बंगाली आणि बिहारी आहेत. त्यामुळे हे नागरिक स्वतःच्याच देशात निराश्रित बनले आहेत,” असा कांगावा ममतांनी केला आहे. तसेच आपली नेहमीची तबकडी वाजवत, हिंदू आणि मुस्लिमांमध्ये भेदभाव होत असल्याचाही राग आळवला आहे. बंगालमध्ये कॉंग्रेस, डावे पक्ष आणि तृणमूल या सर्वांची रोजीरोटी बांगलादेशी घुसखोरांच्या जीवावर चालू आहे. त्यामुळे त्यांनीही ममतांच्या सुरात सूर मिसळला.



अर्थात आता आलेली यादीही शेवटची नाही. अंतिम यादी डिसेंबर महिन्यात येणार आहे. परंतु 2018 च्या क्षितिजावर 2019 च्या निवडणुका दिसत असताना तेवढा धीर धरण्याची बुद्धी विरोधकांना कशी होईल? ‘मुस्लिम विरोधी भाजप’ या ठरलेल्या संकल्पनेनुसार तोंड वाजविण्यासाठी विरोधकांना सुंदर कोलीत मिळाले आहे. या रजिस्टरचे काम सर्वोच्च न्यायालयाच्या आदेशानुसार सुरू झाले, त्यावर देखरेख सर्वोच्च न्यायालयाची होती अशा तपशीलांकडे एकतर सेक्युलर टोळ्यांना लक्ष द्यायचे नाही किंवा दिसले तरी त्यांना ते पाहायचे नाही.


देशात आसाम हे एकमेव असे राज्य आहे जेथे राज्याच्या मूळ रहिवाशांची माहिती एकत्र ठेवण्यासाठी राष्ट्रीय नोंदणी दस्तावेज आहे. याचे कारण म्हणजे इंग्रजांच्या काळापासून आसाममध्ये मोठ्या प्रमाणावर घुसखोरी चालू आहे. आसाममध्ये चहाचे मळे सुरू केले ते इंग्रजांनी. या मळ्यांमध्ये काम करण्यासाठी बाहेरून मोठ्या प्रमाणावर मजूर आणण्यात आले. हे मजूर नंतर आसाममध्ये स्थायिक झाले. त्यामुळे स्थानिक कोण आणि उपरा कोण हे कळणेही अशक्य झाले. त्यानंतर देशाची फाळणी झाल्यानंतर निर्वासितांचे लोंढे आसाममध्ये येऊ लागले. या बाहेरच्या लोकांना स्थानिकांकडून विरोध सुरू झाला. तेव्हा सरकारने आसामचे निवासी निश्चित करण्यासाठी रजिस्टर तयार करण्याचा निर्णय घेतला. अशा प्रकारचे नॅशनल रजिस्टर ऑफ सिटीझन्स 1951 मध्ये तयार करण्यात आले. त्यात आसामच्या प्रत्येक गावातील घर, संपत्ती आणि लोकांचे तपशील होते.


बांगलादेश निर्मिती आंदोलनाच्या काळात असंख्य घुसखोर आसाममध्ये शिरू लागले. त्यांच्या विरोधात 1970 आणि 1980च्या दशकात मोठे आंदोलन उभे राहिले. प्रफुल्लकुमार महंत हे त्या आंदोलनाचे एक प्रमुख नेते. आसाम गण परिषद या पक्षाची स्थापना या आंदोलनातून झाली. राजीव गांधी पंतप्रधान असताना त्यांनी या आंदोलकांशी जो करार केला त्यावेळी या रजिस्टरमध्ये सुधारणा करण्याची मागणीही त्यांनी मंजूर केली होती. त्यानुसार 24 मार्च 1971 च्या मध्यरात्री ज्यांची नावे मतदार यादीत होती त्यांना आसामचे रहिवासी म्हणून मान्यता मिळाली. त्यामुळे या तारखेनंतर आलेले सर्व लोक आपोआप घुसखोर ठरले.


नरेंद्र मोदी यांनी प्रचार काळात बांगलादेशी घुसखोरांचा मुद्दा उचलला असला तरी त्या पूर्वीपासून हा मुद्दा चर्चेत होता. त्यावर खटलेबाजी सुद्धा सुरू होती. सर्वोच्च न्यायालयाने डिसेंबर 2014 मध्ये यासंदर्भात आदेश देऊन 30 जून 2018 पर्यंत हे रजिस्टर अद्ययावत करण्यास सांगितले होते. त्याचीच अंमलबजावणी आता झाली आहे.


आता भलेही चाळीस लाख मतदार पूर्णपणे वगळण्यात येणार नाहीत. डिसेंबरमधील अंतिम यादी येईपर्यंत त्यातील अनेकांची नावे परत येतील. परंतु यातील 50 टक्के नावे गडप झाली तरी सेक्युलरांची वीस लाख मते गेल्यात जमा आहेत. हा त्यांचा जी तडफड चालू आहे त्याचे कारण हे आहे. घुसखोरांच्या मतांवर पोसलेल्या या पक्षाची जणू अस्तित्वासाठी लढाई चालू हे. भाजप या चारचौघांसारख्या सामान्य राजकीय पक्षाला एक हिंदुत्ववादी पक्ष करण्यात सेक्युलर पक्षांच्या अशा अतिरेकी कलकलाटाचा मोठा वाटा आहे. आताही त्या पक्षाच्या 2019 च्या मतांची बेगमीच या नाट्यातून घडणार आहे, आणखी काही नाही.

Friday, July 27, 2018

नैया को डगमगा न देने की चुनौती

अविश्वास प्रस्ताव से पहले विरोधी खेमे में उत्साह की ऐसी बयार थी, कि मानो नरेंद्र मोदी और भाजपा का सफाया बस एक कदम दूरी पर है। सभी विरोधी दलों ने ऐसा माहौल बनाया था, कि सरकार के नाकों चने चबाने का समय आ गया। अपनी एकजुटता का स्वांग बनाने से लेकर बेसिर-पैर के आरोपों की झड़ी लगाने तक हर दल ने एक भीषण संघर्ष के लिए नगाड़े बजाने शुरू किए थे। लेकिन शुक्रवार को लोकसभा में जब अविश्वास प्रस्ताव आया और सभी नेताओं के भाषणों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जवाब देने के लिए उठे, तो यह सारा स्वांग फुर्र हो गया।


इस प्रस्ताव का नतीजा क्या होनेवाला है यह तो हर कोई जानता था, लेकिन जिस तरह वह धड़ाम से औंधे मुंह गिरा उसने सरकारी खेमे में नई ऊर्जा भरने का काम किया। छब्बे गए चौबे बनने, दुबे बनके वापस आए की कहावत को चरितार्थ करते हुए विरोधियों ने मोदी में विश्वास की गर्जना की थी और उनमें आत्मविश्वास भरकर लौट गए। जहां एक ओर अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में 126 मत पड़े वही सरकार के पक्ष में 325 मत पड़े, लगातार हुए उपचुनाव में जिस तरह से भाजपा को पराजय का सामना करना पड़ा था, उससे भाजपा के तेवर कुछ नर्म हुए थे। लेकिन बहुमत के इस विशाल अंतर ने उसे कठोर मुद्रा अख्तियार करने का मौका दे दिया। भाजपा नीत रालोआ के पास जितने सदस्य कागज पर है उससे कहीं ज्यादा मत उसे प्राप्त हुए।


भाजपा बुलेट ट्रेन में सवार करते हुए आगे निकल गई जबकि विपक्ष पैसेंजर गाड़ी में सिग्नल की राह देखता रहा। यूं भी कह सकते है कि विपक्षी एकता का बुलबुला बनने से पहले ही फूट गया। सरकार द्वारा विश्वास प्रस्ताव जीतने के बाद शेयर बाजार ने जिस तरह से उछाल ली उसे यही संदेशा लोगों तक गया, कि सरकार अभी भी अपने ट्रैक पर है।


यह बात सच है कि संसद की जिरह और चुनाव का रण इन दोनों में अंतर होता है। लेकिन संसद में सरकार को घेरकर चुनाव में मोदी को मात देने का विपक्ष का सपना आखिर सपना ही रह सकता है। इस दो दिवसीय चर्चा पर एक नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है कि मोदी को धूल चटाने के लिए विपक्ष को एक बड़े चमत्कार की जरूरत है। इसके लिए विपक्ष के पास अभी लगभग एक साल का समय है। मगर सोनिया गांधी से लेकर शरद पवार तक और राहुल गांधी से लेकर चंद्रबाबू नायडू तक यह भूल नहीं सकते, कि जितना समय उनके पास है उतना ही समय नरेंद्र मोदी के भी पास है। अतः जो चमत्कार विपक्ष कराना चाहता है वही या उससे भी बड़ा चमत्कार नरेंद्र मोदी नामक जादूगर करवा सकता है।


लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा बिल्कुल कोरी रही। विपक्ष की तरफ से गंभीर हमला करने में कोई भी सफल नहीं रहा। राहुल गांधी ने जोरदार कोशिश की, उन्होंने लड़ाई की मुद्रा भी अच्छी तरह अख्तियार की। ऐसा लगने लगा था, कि शायद विपक्षी बेंच पर बिताए हुए चार वर्षों ने उन्हें राजनीति के गुर सीखा दिए है। भाषण के अंत में नरेंद्र मोदी को उनके द्वारा गले लगाना भले ही राजनीतिक पैंतरे के रूप में उल्लेखित हो, लेकिन उसके बाद जिस तरह की आंख मिचोली उन्होंने की और पकड़े गए उससे उनका नौसिखियापन फिर से उजागर हुआ। अपने समर्थकों को निराश करने में राहुल गांधी ने बड़ी ही महारत हासिल की है।


सन 2012 से लेकर भारतीय राजनीति के लगभग सभी प्रमुख खिलाड़ियों ने नरेंद्र मोदी की वाक्पटुता से समझौता कर लिया है। आज की तारीख में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी और जन सामान्य को संबोधित करने में जो विशेषज्ञता मोदी ने हासिल की है उसके आसपास भी कोई फटकता हुआ नहीं दिखता। उनके इसी कौशल का एक और नज़ारा लोकसभा में देखने को मिला।


विश्वास मत प्राप्त करनेवाले सरकार को विजय मिली और इस प्रस्ताव को लानेवालों को अपना कर्तव्य पूरा करने की संतुष्टि मिली। लेकिन सबसे ज्यादा फजीहत शिवसेना की हुई। शिवसेना की भूमिका क्या है यह आखिर तक कोई समझ नहीं पाया। भाजपा को समर्थन देने या उसका विरोध करने को लेकर पार्टी में असमंजस का माहौल रहा। नौबत यहां तक आई, की शिवसेना भाजपा को समर्थन दे रही है, उसका विरोध कर रही है या अनुपस्थित रहकर इज्जत बचा रही है इसकी सुध लेना भी लोगों ने छोड़ दिया। आगामी समय में इसका असर जरूर देखने को मिलने वाला है। बताया जाता है, कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने महाराष्ट्र में अकेले के दम पर लड़ने के लिए कार्यकर्ताओं को आदेश दिए हैं। “मजबूर ये हालात इधर भी है उधर भी,” यह पंक्ति अगर किसी पर आज फिट बैठती है तो वह भाजपा और शिवसेना है।



बीजू पटनायक के नेतृत्व वाले बीजू जनता दल (बीजेडी) ने राजनीतिक सूझबूझ दिखाते हुए अविश्वास प्रस्ताव से किनारा कर लिया। कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी बनाए रखने वाले बीजेडी ने अब तक खुद को कई तूफानों से अलग रखा है। और इस मैच में, जिसका नतीजा पहले एक्शन से ही तय था, किसी का भी पक्ष लेना पार्टी ने मुनासिब नहीं समझा जो उसकी समझदारी का परिचायक है।


राजनीति में एक और मजबूर पार्टी है तमिलनाडु की सत्ताधारी पार्टी अन्नाद्रमुक। लोकसभा में तीसरे नंबर के सदस्य जिस पार्टी के पास है उसकी भूमिका यूं तो महत्वपूर्ण हो जाती है। लेकिन अन्नाद्रमुक आज नेतृत्व की कसौटी से गुजर रही है। उसका वजूद केंद्र की मोदी सरकार के रहमों करम पर कायम है। इसलिए उसका भाजपा के साथ जाना न किसी को खटक सकता है न आश्चर्यचकित कर सकता है। यह भी सही है, की अन्नाद्रमुक की घोर विरोधी द्रमुक कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाए हुए हैं और इसलिए वह उस खेमे में नहीं जा सकती।
कुल मिलाकर भाजपा की नैया अनुकूल हवाओं के सहारे आगे बढ़ रही है। तृणमूल कांग्रेस, धर्मनिरपेक्ष जनता दल (जेडीएस) और तेलंगाना राष्ट्र समिति जैसी चंद प्रादेशिक पार्टियों को छोड़ दे तो उसके सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं है। सपा और बसपा अभी अपने अस्तित्व को बचाए रखने के फिराक में है। जिस तेलुगू देशम पार्टी ने यह प्रस्ताव लाया था उसकी और उसके नेता चंद्रबाबू नायडू की विश्वसनीयता हमेशा संदेह के घेरे में रही है। कमोबेश वही हाल महाराष्ट्र में एनसीपी का है।
कांग्रेस पर तंज कसते हुए मोदी ने कहा था
“न मांझी न रहबर
न हक में हवाएं है,
कश्ती भी जर्जर
यह कैसा सफर है।”
मोदी के नेतृत्व में भाजपा की हालत बिल्कुल इसके विपरीत है। उसके सामने चुनौती है तो बस अपनी नैया को डगमगा न देने की।

Tuesday, May 29, 2018

Kumaraswamy Rekindles Ugly Memories of Coalition Politics

Janata Dal Secular and Congress have managed to Grab the power in Karnataka pushing the Bharatiya Janata Party to the margin. H D Kumarswamy is in the Chief Minister's chair. However, with the coalition comes the ugly memories of 1990s when themes of the supporting parties ruled the roost while issues of governance where put on back burner.
Karnataka’s new CM H D Kumaraswamy's remark that he was at the "mercy" of Congress and not the people of state Signify the return of that era. With combined opposition parties coming together for the sake of fighting Narendra Modi and BJP, even as they are yet and decided over who would lead the pack, the chances of this kind of ‘obligatory’ politics become stark.
The Karnataka BJP leaders have flayed CM Kumarswamy saying that he was "deriding his own people" and doubted his credentials to serve them. However, their statement may fall under the ‘sour grape’ category. Surely, the statement of H D Kumaraswamy counts among the most brazen statements. It also signifies as to who would call the shots in this makeshift arranged that promises to last at least until next parliamentary elections.
Kumaraswamy had yesterday stated he was at the 'mercy' of the Congress, not the 6.5 crore people of the state. "Mine is not an independent government. I had requested the people to give me a mandate that prevents me from succumbing to any pressure other than you. But today I am at the mercy of the Congress. I am not under the pressure of the 6.5 crore people of the state," he had said.
The coalition governments have been part of Indian polity since the elections in 1967 when the Congress’s monopoly of power in the states was broken for the first time. It started an era of short-lived governments and politics of defection - both of which were induced by Congress. The opposition parties formed coalition governments that included Swatantra, Jan Sangh, BKD, Socialists and CPI. Though CPM did not join these governments, it actively supported them.
Even Congress also formed coalition governments in some of the states where it had been reduced to a minority. However, none of these governments was stable enough and could not stay in power for long. Interestingly, Congress party has always believed that coalition rule is a prescription for instability and that it alone can provide stable governance. It Actually ran an election campaign on the plank of stability when two successive governments led by VP Singh and Chandrashekhar could not complete their terms. Ironically, the one led by Chandrashekhar came into existence because Congress has had lent support to it and eventually took it back honor flimsy pretext.
It was Atal Bihari Vajpayee who for the first time led governments with large coalition of parties. But that was never a smooth ride even for a sagacious leader like Vajpayee.
Even a quick flashback would show the difficult road that the nation has traversed. A debilitating instability had gripped the Nation in the latter half of the 90s. The Congress was voted out of power in May 1996 and BJP, for the first time, emerged largest party in the 11th Lok Sabha. Vajpayee's first tenure as Prime Minister lasted only 13 days.
After pledging "unconditional" outside support "for full five years", the Congress party destabilized two United Front governments in less than two years - and that too on patently flimsy excuses. It actually showed the Congress party's contempt for coalition politics as it thought it could run the country on its own and smaller parties were a hindrance to its agenda.
Congress leaders pulled down the UF governments under the calculation that power would naturally be theirs after the early elections to the 12th Lok Sabha. In reality, the electorate handed a worse defeat to the Congress than in 1996 and gave an unambiguous mandate to Vajpayee. Even this bitter experience did not pursuade the power-hungry Congressmen to play power games and destabilize the government and eventually the nation. on the contrary, in the zeal to put their leader Sonia Gandhi, who had taken the baton just a year ago, they plotted pull down the NDA Government in April 1999. And brought it down with just one vote.
That forced yet another mid-term election on the nation and the outcome again was in favor of BJP. The Congress fared worse than before, the BJP did better than before and Vajpayee began his third term as Prime Minister, with a clearer and stronger mandate than before.
While achieving this, everyone knows what kind of tribulations Vajpayee had to undergo that ultimately impacted his performance as the Prime Minister. Since 2004, the Congress-led United Progressive Alliance ruled the country and its 10-year rule is known for loot, plunder and mismanagement.


With Narendra Modi's victory in 2014, that era of blackmailing in the guise of coalition had come to an end. Under his leadership, BJP formed single handed governments in one after another state. In states like Delhi and Bihar, BJP did not win but the governments where stable. in Bihar, it was this murky state of coalition that forced Nitish Kumar to switch sides and join the NDA.
All those memories returned with swearing in of Kumarswamy when sworn enemies embraced each other to fight the bigger foe. What price they will have to pay in return of guarantee for their survival can be gauged from the statement that Kumar Swami has made. And this is just the beginning. We are still in the trailer but it is enough to give an idea as to what the picture will likely be.

Friday, May 25, 2018

जोकर के हाथों में लोकतंत्र की लूट

कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री के रूप में एच. डी. कुमारस्वामी जब शपथ ग्रहण कर रहे थे उस समय पूरे देश के सभी गैर-मोदी दलों के नेता वहां एकत्र हुए थे। मंच पर ही एक दूसरे का हाथ थाम कर इन सब लोगों ने अपने एक होने का संकेत उनके समर्थकों को दिया। उस दृश्य ने बता दिया, कि पिछले 4 वर्षों से केंद्र तथा देश के अधिकांश राज्यों में जिस प्रकार से भाजपा का रोड रोलर चल रहा है उसका जोरदार जवाब देने की तैयारी विरोधियों ने की है।


इस शपथग्रहण समारोह में पांच राज्यों के मुख्यमंत्री उपस्थित थे। पश्चिम बंगाल में मुहर्रम के लिए दुर्गा पूजा पर पाबंदी लगानेवाली ममता बैनर्जी, आंध्र प्रदेश में तिरुपति देवस्थान पर ईसाई महिला की नियुक्ति करनेवाले चंद्रबाबू नायडू, तेलंगाना में मुस्लिमों को आरक्षण देने के लिए जिद पर अड़े हुए के. चंद्रशेखर राव, केरल में दूसरा अरबस्थान बनाने के लिए लालायित पिनराई विजयन और दिल्ली में नौटंकी को संस्थात्मक दर्जा दिलानेवाले अरविंद केजरीवाल ने इस मंच को चार चांद लगाए। चंद्रबाबू नायडू और चंद्रशेखर राव इनमें कितनी पटती है, यह सबको पता है लेकिन वे वहां हाजिर थे। इतना ही नहीं एक दूसरे के खून के प्यासे अखिलेश यादव और मायावती भी वहां हाजिर थे। अरविंद केजरीवाल को मानो तक सभी दलों ने जैसे अपने कुनबे से बाहर रखा था और उन्होंने भी भ्रष्टाचार निर्मूलन के पुरोधा के रूप में खुद को महिमामंडित किया था। लालू प्रसाद यादव के गले मिलकर भी उनका भ्रष्टाचार का पाखंड बदस्तूर जारी था। किसी समय कांग्रेस को जी भर कर कोसनेवाला यह भ्रष्टाचारविरोधी वीर वहां कांग्रेस की पंक्ति में बैठा था।


इस समारोह में जिन्होंने एक दूसरे का हाथ पकड़कर कांग्रेस का हाथ मजबूत करने का बीड़ा उठाया उन सब नेताओं के पास मिलकर आज की घड़ी में लोकसभा की 265 सीटें हैं। फिर भी इनमें महाराष्ट्र की शिवसेना नहीं थी। यह दीगर बात है, कि यह जमावड़ा एक दूसरे की कितनी मदद करता है, इसको लेकर आशंकाएं बरकरार है। इन्हें देखकर भाजपा नेताओं के माथे की रेखाएं बढ़ गई होगी इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। भाजप से नाराज रहे लोगों को अच्छा लगे इसलिए ये दोनों कुछ दिन के लिए चेहरे पर चिंता लेकर घूमेंगे भी।


भाजपा के विरोध में इस अभियान का शंखनाद करने के लिए सेकुलरों को कुमार स्वामी के राज्याभिषेक से बेहतर मुहूरत नहीं मिल सकता था। एक ओर पूर्ण बहुमत ना मिलने का मलाल भाजपा को सता रहा हो, बहुमत ना मिलने के कारण पद छोड़ने की आफत येदियुरप्पा पर आई हो, मोदी शाह के हाथों से लोकतंत्र की इज्जत बचा सके ऐसा रिसॉर्ट विरोधियों को हाल ही में मिला हो - संक्षिप्त में कहे तो भाजपा के
सारे घाव हरे हो ऐसे समय में यह शंखनाद किया गया।


पर इन सब लोगों को एकत्र लानेवाला शख्स कौन है? वह है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। सन 2014 के लोकसभा और उसके बाद के लगभग हर चुनाव में एक बात दिख चुकी है माहौल चाहे जैसा भी हो, एक बार मोदी के मैदान में उतरते ही सारा दृश्य बदल जाता है। कर्नाटक में भी भाजपा को सबसे ज्यादा सीटें मिली लेकिन इनमें से अधिकांश सीटें मोदी के करिश्मे का नतीजा है। पार्टी के किसी भी अन्य नेताओं को मतदान से संवाद साधने में सफलता नहीं मिली। येदियुरप्पा प्रभावशाली नेता जरूर है लेकिन भाजपा को अकेले के बूते सत्ता तक ले जाने की ताकत उनमें नहीं है यह फिर एक बार फिर साबित हो गया। कर्नाटक में मोदी अकेले भाजपा को 100 के पार ले गए यह बात भाजपा के लिए वास्तव में चिंता की बात है।


अगले एक वर्ष में लोकसभा का चुनाव है और भाजपा के अलावा बाकी सारे दलों का एक ही मलाल है, कि उनके पास मोदी नहीं है! सीधे जनता से बात करने वाला और उनके मत खींचने वाला चेहरा उनके पास नहीं है। फिर अपने अस्तित्व की आशंका से भयभीत विरोधियों के मन में एक बात ने पैठ जमा ली है, कि मोदी और भाजपा को टक्कर देने हो तो सभी भाजपा विरोधी दलों को एकत्र आना ही होगा। फुलपुर आदि उपचुनावों के नतीजों ने उनके मुगालते को और हवा दी है, हालांकि बड़े चुनावों के नतीजे कुछ और ही कहते हैं।


मजे की बात यह, कि जिस कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण के लिए ये लोग इकट्ठा हुए थे वह कहां एकत्रित विरोधियों के दम पर चुनकर आए थे। कर्नाटक में कांग्रेस और जीडीएस ने चुनाव सिर्फ अलग-अलग नहीं लढ़ा, बल्कि एक दूसरे पर आग उगलते हुए लड़ा था। लेकिन मतदाताओं का जनादेश खंडित रूप से आया और हताश कांग्रेस ने उत्साहित जीडीएस को तश्तरी में रखकर सत्ता सौंप दी।


विधान सौध के सीढ़ियों पर बने मंच पर आसीन इन नेताओं के मन में क्या विचार आते होंगे? पिछले तीन दशकों से देश की राजनीति कितनी अच्छी चल रही थी? प्रादेशिक दलों का जोर बढ़ रहा था, जिसके पास 5-10 विधायक या 15-20 सांसद हो वह नेता भी राज्य के मुख्यमंत्री या केंद्र में प्रधानमंत्री को घुटने टेकने पर मजबूर कर सकता था! सिर्फ अपनी जाति की गठरी संभलने की बात थी! कईयों के पोतो-पड़पोतों का का भी इंतज़ाम हो जाता था! कोई जेल में जाते समय अपनी बीवी को मुख्यमंत्री करता था, कोई रातोंरात इस दल से उस दल में जाता था या स्वाभिमान का दम देकर मंत्री पद हासिल करता था। इस पूरे तंत्र पर एक प्रहार किया मोदी नाम के व्यक्ति ने। दुष्ट व्यक्ति के विरोध में एकत्र आना ही होगा। लोकतंत्र बचाना ही होगा। मोदी नामक राक्षस को हराना ही है, ऐसा निश्चय उन्होंने किया होगा।


बैटमैन सीरीज की फिल्मों में से एक 'डार्क नाइट राइज़ेस' में आरंभ का एक दृश्य है। विलेन जोकर कई लोगों को साथ में लेकर बैंक पर डकैती डालने जाता है। उस समय सभी लोग जोकर के मुखोटे पहने हुए ही होते हैं। बैंक में प्रवेश करने के बाद ये लोग पहले वहां के लोगों को और कर्मचारियों को गोलियों से भूनते हैं। बाद में जैसे-जैसे रकम हाथ में आने लगती है वैसे वैसे ये सारे जोकर एक दूसरे को मारने लगते हैं। सबसे आखिर में पूरी रकम हाथ में हथियाने वाला जोकर (हीथ लेजर) हाथ आई लूट को लेकर भाग जाता है।



भारतीय लोकतंत्र की लूट ऐसे किसी जोकर के हाथ में ना पड़े तो गनीमत है।

Thursday, May 24, 2018

जोकरच्या हाती लोकशाहीची लूट

कर्नाटकचे नवीन मुख्यमंत्री म्हणून हरदनहळ्ळी देवेगौडा कुमारस्वामी हे शपथग्रहण करत होते त्यावेळी देशभरातील सर्व मोदीरहीत पक्षांची मंडळी तिथे एकत्र जमली होती. व्यासपीठावरच मानवी साखळी उभी करून या सर्वांनी आपण एकत्र येणार असल्याचे आपापल्या अनुयायांना संकेत दिले. गेली चार वर्षे केंद्र तसेच देशाच्या बहुतेक राज्यांमध्ये ज्या प्रकारे भाजपचा मोदीछाप रोडरोलर फिरत आहे, त्याला एक खमके उत्तर देण्याची तयारी विरोधकांनी केली आहे.


या शपथविधी समारंभात पाच राज्यांचे मुख्यमंत्री हजर होते. पश्चिम बंगालमध्ये मोहरमसाठी दुर्गोत्सवाच्या मिरवणुकीवर बंदी घालणाऱ्या ममता बॅनर्जी, आंध्र प्रदेशात तिरुपती देवस्थानावर ख्रिस्ती महिलेची नियुक्ती करणारे चंद्राबाबु नायडू, तेलंगाणात मुस्लिमांना आरक्षण देण्यासाठी इरेला पेटलेले चंद्रशेखर राव, केरळमध्ये प्रति-अरबस्थान निर्माण करण्याचा विडा उचललेले पिनराई विजयन आणि दिल्लीत नौटंकीला संस्थात्मक स्वरूप प्राप्त करून देणारे अरविंद केजरीवाल यांनी या व्यासपीठाला शोभा आणली होती. चंद्राबाबु नायडू आणि तेलंगाणाचे चंद्रशेखर राव यांचे सख्य जगजाहीर आहे. पण ते तिथे हजर होते. इतकेच कशाला, एकमेकांचे हाडवैरी असलेले अखिलेश यादव आणि मायावती हेही तिथे हजर होते. अरविंद केजरीवाल यांना आजवर सर्व राजकीय पक्षांनी काहीसे गावकुसाबाहेर ठेवलेले आणि त्यांनीही भ्रष्टाचारनिर्मूलन शिरोमणी या नात्याने आपले सोवळे टिकवून ठेवले होते. अगदी लालूप्रसादांना मिठी मारल्यानंतरही त्यांचा हा भ्रष्टाचारनिर्मूलनाचा दंभ गेलेला नव्हता. एकेकाळी काँग्रेसला करकचून शिव्या घालणारा हा शुद्धीबहाद्दर तिथे काँग्रेसच्या पंक्तीत मानाने बसला होता.
या समारंभात ज्यांनी एकमेकांचा हात धरून काँग्रेसचा हात मजबूत करण्याचा प्रण केला, त्या सर्व नेत्यांकडे मिळून आजच्या घडीला लोकसभेच्या 265 जागा आहेत. तरीही यात महाराष्ट्रातील 'सत्तारोधी' शिवसेना नव्हतीच. हा गोतावळा आता एकमेकांना किती मदत करतो, हे येणारा काळच ठरवेल. बिनभाजपी नेत्यांची ही गर्दी पाहून मोदी-शहा आणि भाजपी नेत्यांच्या कपाळावर आठ्या उमटल्या असतील तर त्यात नवल नाही. भाजपवर खप्पामर्जी असलेल्यांना बरे वाटावे म्हणून ही जोडगोळी काही दिवस चेहऱ्यावर चिंता मिरवतीलही.


भाजपविरोधातील या मोहिमेचा शंखनाद करण्यासाठी सेक्युलरांना कुमारस्वामीच्या राज्याभिषेकापेक्षा आणखी चांगला मुहूर्त शोधूनही सापडला नसता. पूर्ण बहुमत न मिळाल्याची खंत भाजपला भंडावणारी. येडियुरप्पांना बहुमत न मिळाल्यामुळे पद सोडण्याची नामुष्की आलेली. मोदी-शहांच्या हातून लोकशाहीची अब्रू वाचवू शकेल असा रिसॉर्ट विरोधकांना नुकताच सापडलेला. थोडक्यात म्हणजे भाजपच्या सर्व जखमा ताज्या-ताज्या असतानाच हा शंखनाद करण्यात आला.


पण मुळात विळ्या-भोपळ्यांची ही मोट घालणारा मूळ शेतकरी कोण आहे? तो आहे पंतप्रधान नरेंद्र मोदी. वर्ष २०१४ची लोकसभा आणि त्यानंतरच्या जवळपास प्रत्येक निवडणुकीत एक गोष्ट दिसून आलीय, की वातावरण भले कसेही असो, मोदी एकदा रणांगणात उतरले की संपूर्ण चित्र बदलून जाते. अगदी कर्नाटकातही भाजपला सर्वात जास्त मिळाल्या, परंतु त्यातील बहुतेक जागा या मोदींच्या करिष्म्याचा परिणाम आहे. पक्षाच्या अन्य कुठल्याही नेत्याला मतदारांशी तसा संवाद साधता आलेला नाही. येडियुरप्पा हे प्रभावशाली नेते जरूर आहेत, परंतु एकहाती भाजपला सत्तेपर्यंत नेण्याचे सामर्थ्य त्यांच्यात नाही, हे पुनः पुनः सिद्ध झाले आहे. मोदींनी एकट्याने भाजपला शंभरीपार नेले ही भाजपसाठी खरे तर चिंतेची बाब आहे.


येत्या एक वर्षात लोकसभेची निवडणूक आहे आणि भाजपशिवाय झाडून साऱ्या पक्षांचे एकच दुखणे आहे – त्यांच्याकडे मोदी नाही! थेट जनतेशी संवाद साधणारा आणि त्यांची मते मिळवू शकेल, असा चेहरा त्यांच्याकडे नाही. मग अस्तित्वाचा प्रश्न भेडसावणाऱ्या विरोधकांनी मनाशी एक गोष्ट ठरवून टाकलीय - मोदी आणि भाजपला टक्कर द्यायची असेल तर भाजपविरोधी सर्व पक्षांनी एक यायला पाहिजे. फुलपूर इत्यादी ठिकाणच्या पोटनिवडणुकांनी त्यांच्या या समजाला खतपाणी घातलेय – अर्थात मोठ्या निवडणुकांच्या फलिताचे इंगित काही वेगळेच आहे. गंमत म्हणजे ज्या कुमारस्वामींच्या शपथविधीसाठी ते जमले होते ते तरी कुठे एकत्रित विरोधकांच्या जीवावर निवडून आले होते? कर्नाटकात काँग्रेस आणि धर्मनिरपेक्ष जनता दलाने निवडणूक वेगवेगळीच लढली नव्हती तर एकमेकांवर आग ओकत लढली होती. पण मतदारांचा जनादेश खंडीत आला आणि कातावलेल्या काँग्रेसने हरखलेल्या जेडीएसला सत्तेचे आवतण दिले.


विधानसौधाच्या पायऱ्यांवर व्यासपीठावर बसलेल्या या सगळ्या मंडळींच्या मनात काय असेल? गेली तीन दशके देशातील राजकारण किती छान चालू होते. प्रादेशिक पक्षांचा जोर वाढत होता. ज्याच्याकडे 5-10 आमदार किंवा 15-20 खासदार तो नेतासुद्धा राज्यात मुख्यमंत्र्याला आणि केंद्रात पंतप्रधानाला नाकदुऱ्या काढायला लावत होता. आपापल्या जातीचे गठ्ठे एकत्र केले, की झाले! अनेकांची नातवा-पतवंडांपर्यंतची नेतृत्वाची सोय व्हायची. कोणी तुरुंगात जाताना आपल्या बायकोला मुख्यमंत्री करायचा, कोणी रातोरात या पक्षातून त्या पक्षात जायचा. कोणी स्वाभिमानाच्या बेडकुळ्या काढून वट्ट मंत्रिपदे मिळवायचा. त्या सर्वांवर घाला घातला तो या मोदी नावाच्या माणसाने.


अशा या दुष्ट माणसाच्या विरोधात एकत्र यायलाच पाहिजे. लोकशाही वाचली पाहिजे. "लोकशाही ही ऊवांना मिळालेली सिंहाला खाण्याची शक्ती असते," असे जॉर्ज क्लेमेंच्यू या लेखकाने म्हटले आहे. आपल्याला मिळतील तिथून उवा-पिसवा गोळा करू आणि मोदी नावाच्या राक्षसाला हटवू, असा निश्चयच त्यांनी केला असेल.



बॅटमन मालिकेच्या एका चित्रपटात (बहुतेक डार्क नाईट रायझेस) सुरूवातीचे दृश्य होते. खलनायक जोकर हा अनेकांना घेऊन बँकेवर दरोडा घालायला जातो. त्यावेळी सर्वांनी जोकरचेच मुखवटे घातलेले असतात. बँकेत शिरल्यावर ही मंडळी आधी तेथील लोकांना व कर्मचाऱ्यांना गोळ्या घालतात. नंतर जसजशी रक्कम हातात येऊ लागते तस तसे हे सर्व जोकर एकेकाला गोळ्या घालायला लागतात. सर्वात शेवटी संपूर्ण रक्कम एकहाती मिळालेला जोकर (हीथ लेजर) मिळालेली लूट घेऊन पोबारा करतो.


भारतीय लोकशाहीची लूट अशा जोकरच्या हाती पडण्याची वेळ येऊ नये म्हणजे मिळविली.

Monday, May 21, 2018

कर्नाटक का नाटक अभी बाकी है

कर्नाटक के नाट्य के पहले अंक का पटाक्षेप भाजपा को मिले हुए झटके से हुआ है। सत्ता सोपान के सबसे उंचे पायदान से उसे नीचे उतरना पड़ा है और वह भी बड़े बेआबरू होकर - सिर्फ आठ विधायक न मिलने की वजह से। कईयों का कहना है, बल्कि अधिकांश लोगों का कहना है, कि भाजपा को अव्वल तो सरकार गठन का दावा ही नहीं करना चाहिए था। लेकिन वह किया गया। कांग्रेस और जेडी (एस) के कुछ विधायकों को खरीदने का उसका इरादा काम नहीं आया - राजनीति में सफलता केवल इरादे और हौसलों से नहीं मिलती। भाग्य का साथ भी चाहिए। इस बार भाग्य डी. के. शिवकुमार नामक नेता के रूप में आड़े आया। कर्नाटक में त्रिशंकु विधानसभा के नतीजे आने के बाद से ही कांग्रेस ने शिवकुमार को कांग्रेसी विधायकों को एक साथ रखने की जिम्मेदारी सौंप दी थी। बेंगलुरु के ईगलटन रिसॉर्ट से लेकर हैदराबाद तक और फिर वहां से विधानसभा तक कांग्रेसी विधायकों को पहुंचाने की जिम्मेदारी को शिवकुमार ने सफाई से अंजाम दिया। यहां तक कि जब ईगलटन रिसॉर्ट में पुलिस हटा ली गयी तब भी शिवकुमार ने कहा कि कांग्रेस के विधायकों की सुरक्षा पर कोई खतरा नहीं है।
भाजपा शायद अपने मनचाहे विधायकों को पटा भी लेती, अगर मंत्रि पद और धन का टोटका चला लेने के लिए वे उपलब्ध रहते। लेकिन कांग्रेस और जेडी (एस) ने उन्हें इस तरह बंदी बना लिया था, कि भाजपा का संदेश उन तक पहुंच ही नहीं पाया। उन्होंने अपने विधायकों को बंद कर दिया था और उनके मोबाइल फोन तक जब्त कर लिए थे।
भाजपा के लिए वज्राघात तो उसी समय हो गया था जब उच्चतम न्यायालय ने बहुमत की परीक्षा के लिए अवधि 15 दिनों से घटाकर केवल 24 घंटे तक कर दिया था। अमित शाह की चर्चित और अप्रत्याशित चालें चलने के लिए भाजपा को मौका ही नहीं मिला। जब यह साफ हो गया, कि पार्टी बहुमत से दूर है और अंतिम रेखा को छून की ताकत उसमें नहीं है, तब बी. एस. येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद का इस्तीफा दे दिया। हालांकि उससे पहले उन्होंने विधानसभा में भावनात्मक भाषण देकर अपना पक्ष भी रखा। उस भाषण को सुनने के बाद लगा, कि विधानसभा के लिए प्रचार चुनाव के साथ समाप्त नहीं हुआ बल्कि वह सभागार में पहुंच गया है।


इस अंक की समाप्ति के बाद नाटक का दूसरा अंक शुरू हुआ है। राज्यपाल वजुभाई वाला ने जेडी (एस)-कांग्रेस गठबंधन के नेता एच. डी. कुमारस्वामी को आमंत्रित करने में कोई समय नहीं गंवाया। अब नई सरकार बुधवार को शपथ ग्रहण करेगी। और अब कर्नाटक की जनता के होठों पर एक ही सवाल है - यह सरकार कितने दिन चलेगी?
इस सरकार के अंतर्विरोध किसी से छुपे नहीं है। दोनों दलों ने न सिर्फ एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा, बल्कि पूरी कड़वाहट के साथ लढ़ा। ऐसे में इन दोनों का एकत्र आना एक विडंबना से कम नहीं है। किसी तिसरे को रोकने के लिए दोनों दलों ने भले ही एक दूसरे के गले लगाया है, लेकिन उनकी हाथों में वे छुरे अभी भी कायम है जो उन्होंने चुनाव के दौरान एक दूसरे पर चलाए थे। उस पर तुर्रा यह, कि मुख्यमंत्री के अपने सदस्य उसे समर्थन देनेवाले दल से आधे से भी कम है। भाजपा को किसी भी तरह से सत्ता तक पहुंचने से रोकने के लिए कांग्रेस ने बहुत ही सस्ते में खुद का सौदा किया है।
खुद को गैर-सांप्रदायिक कहलानेवालों का उम्मीदभरा अनुमान यह है, कि भाजपा के डर के चलते ये कांग्रेस और जेडीएस लंबी अवधि तक गृहस्थी चला सकेंगे। ऐसे लोगों को कुमारस्वामी का इतिहास या तो पता नहीं या वे उससे आंखे मूंद लेना चाहते है। कुमारस्वामी और देवेगौड़ा भारत के उन राजनीतिक चरित्रों में से है जिनकी गिनती नितांत अवसरवादियों में की जा सकती है। कुमारस्वामी को किसी विचारधारा से लेना देना नहीं है। कांग्रेस के सहारे सत्ता के शिखर पर पहुंचने के बाद वे अगर कांग्रेस के असहज महसूस करने लगे तो पाला बदलकर भाजपा के साथ भी आ सकते है। ऐसे में भाजपा भी उन्हें समर्थन देने से नहीं कतराएगी क्योंकि जो खेल कांग्रेस ने खेला क्या वह भाजपा नहीं खेल सकती? कर्नाटक के खजाने से भाजपा को दूर रखने के लिए अगर कांग्रेस जेडीएस के सामने गिडगिडा सकती है तो क्या भाजपा जेडीएस को सहारा नहीं दे सकती?
इसके साथ ही यह उम्मीद करना, कि विरोधी भाजपा, जिसके सदस्य लगभग इन दोनों दलों के कुल सदस्यों जितने है, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेगी। यह वह भाजपा है जिसके मूंह सत्ता का खून लग चुका है। कश्मीर से लेकर कर्नाटक तक वह हर जगह अपना झंडा गाड़ने की ताक में रहती है। जिस पार्टी के पास रेड्डी भाईयों से विधायकों के शिकारी हो, उसके लिए आंकडों का इंतजाम महज़ समय का सवाल है।
और कांग्रेस का यह चरित्र रहा है, कि जिस दल को उससे समर्थन मिला है उसकी सरकार कभी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। इसका सबसे प्रखर उदाहरण तो कुमारस्वामी के पिता देवेगौड़ा ही है जिन्हें कर्नाटक से उठाकर प्रधानमंत्री बनाया गया था और एक वर्ष के भीतर सत्ताविहीन किया गया था।
तो इसमें क्या शक, कि कांग्रेस जैसे बेवफा सहयोगी और भाजपा जैसे सत्ताकांक्षी विरोधी के चलते कुमारस्वामी सरकार एक पल के लिए भी स्थिर महसूस नहीं करेगी। हां, इतना जरूर है, कि भाजपा के विजय अभियान से हताशाग्रस्त और विरोधियों की एका का सपना बुननेवाले लिबरलों के लिए यह कुछ समय के लिए जरूर उम्मीद पैदा करेगी।

Thursday, May 10, 2018

युवराज का इरादा, कर्नाटक का अड़ंगा

आखिर राहुल गांधी ने जता दिया, कि कांग्रेस को बहुमत मिलने पर प्रधानमंत्री बनने की उनकी तैयारी है। राजनीति में उतरने के बाद 14 वर्षों तक लूका-छिपी खेलने के बाद आखिर उन्हें पता चला, कि रण में उतरना है तो सिंहासन का लक्ष्य रखना लाजिमी है। यह पहली बार है, कि कांग्रेस के युवराज ने किसी भी तरह की जिम्मेदारी उठाने के लिए हामी भरी है। वरना अब तक वे सत्ता को विष बताकर राजनीतिक उपवास करते रहे जिसके तहत उनके पास कोई कुर्सी तो नहीं थी लेकिन अधिकार बराबर रहते थे।
कर्नाटक के पत्रकारों ने उन्हें पूछा था, कि यदि सन 2019 में कांग्रेस सबसे बडी पार्टी बनकर उभरी तो क्या वे प्रधानमंत्री बनेंगे? उसे उत्तर देते हुए उन्होंने एक सकारात्मक जवाब दिया। इस कदम को उनके बढ़े हुए आत्मविश्वांस का भी प्रतीक माना जा सकता है और उनकी मजबूरी का भी। आखिर वे अब कांग्रेस अध्यक्ष है और जिस तरह के परिवारवादी ढर्रे पर कांग्रेस चलती है, उसके चलते उनके अलावा कांग्रेस के पास अन्य कोई विकल्प है नही। कांग्रेस ने जब 2004 में बहुमत प्राप्त किया था, उस समय सोनिया गांधी के पास प्रधानमंत्री बनने का अवसर था लेकिन उनके इतालवी जन्म के कारण वे पद पर आसीन नहीं हो सकी। राहुल के संदर्भ में ऐसी कोई बाधा नहीं है। इसलिए अगर सचमुच कांग्रेस यह चमत्कार कर भी पाए, तो राहुल के अलावा कोई और नाम तो कांग्रेस के पास है नहीं। जब उखली में सर दिया तो मुसल से क्या डरना, इस कहावत के अनुरूप फिर युवराज ने भी ताल ठोंक दिया है। हालांकि, कौन प्रधानमंत्री बनना चाहता है और नहीं, यह फिलहाल मुद्दा नहीं है।
मुद्दा यह है, कि राहुल गांधी के इस आत्मविश्वा सपूर्ण पैंतरे में एक शर्त है। उनकी यह तैयारी एक इच्छा बनी रहेगी क्योंकि अगर उसे पूरी होनी है, तो कांग्रेस को 201 9 में लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना होगा। पिछले कुछ वर्षों में का इतिहास स्पष्ट बताता है, कि यह संभव नहीं है। यदि राहुल की इच्छा पूरी होती है, तो यह उनकी मेहनत और नीति का नतीजा नहीं बल्कि भाग्य का चक्र कहा जाएगा।
उनकी इस चुनौतीपूर्ण घोषणा में जान तभी आएगी अगर्चे उनकी पार्टी कर्नाटक में कुछ दम दिखा सकें। कांग्रेस अपने बूते पर किसी राज्य में बहुमत प्राप्त कर सकें, यह राहुल के लिए अपने नेतृत्व का सिक्का मनवाने की पहली शर्त है। कांग्रेस में उनका नेतृत्व बेरोकटोक चल सकता है, क्योंकि उस पार्टी की मानसिकता ही सामंतवादी और परिवारवादी हो चुकी है। लेकिन सन 2019 के चुनावों के लिए जब कांग्रेस दूसरे दलों के साथ साझेदारी करना चाहती है ऐसे में अपने नेतृत्व गुण निर्विवाद रूप से साबित करना राहुल के लिए महत्वपूर्ण है। उनके राजनीतिक अस्तित्व की यह पहली कसौटी है। और उनकी पाटी इस मामले में अब तक कोरी रही है।





इस वर्ष कर्नाटक के बाद छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदी राज्यों में भी चुनाव है। लेकिन वैसा दमदार प्रदर्शन करने से पहले कांग्रेस को कर्नाटक की परीक्षा पास करनी होगी। राहुल के कांग्रेस उपाध्यक्ष रहते कांग्रेस 10 से अधिक राज्यों में चुनाव हार गई है। उनके कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद भी हार का सिलसिला जारी है। भाजपा "दागी विरासत, सामंती सियासत" का नारा देकर कांग्रेस को घेरती आई है। हाल के दिनों में प्रधानमंत्री मोदी ने इस संघर्ष को नामदार बनाम कामदार का रूप दिया है। इसलिए कर्नाटक के चुनावों पर राहुल गांधी और कांग्रेस का भावी निर्भर है। यह वह राज्य है जो राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है और कांग्रेस के पाले में एकमात्र बड़ा राज्य है। अगर भाजपा वहां जीतती है तो उसके दक्षिण में विजय अभियान में रास्ते खुले हो जाएंगे। अगर कांग्रेस वहां अपनी सत्ता कायम रखती है तो माना जाएगा, कि वह एक गंभीर राजनीतिक खिलाड़ी है जिससे 2019 में उसकी चुनौती को भी गंभीरता से लिया जाता है। अगर सत्ता उसके हाथ से गई तो तृणमूल कांग्रेस और एनसीपी जैसे दल उस पर हावी हो जाएंगे। तृणमूल की ममता बैनर्जी ने तो वैसे भी कांग्रेस को 1-1 सीट बंटवारे का प्रस्ताव दिया है। राहुल गांधी ने अब तक ऐसा कुछ भी नहीं किया है, कि ये सारे क्षत्रप उनके झंड़े के तले एकत्र आएंगे।
कांग्रेस ने यह मुगालता पाल रखा है, कि प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के विरुद्ध लोगों में आक्रोश है और वह उसे अपने आप सरकार तक पहुंचा देगा जिससे युवराज स्वयं राजा बन जाएंगे। जबकि भाजपा और कांग्रेस दोनों से समान दूरी बनाए रखना चाहनेवाले अन्य विपक्षी दल तीसरे मोर्चे या फेडरल फ्रंट की तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने पहले ही बिना लाग-लपेट के बता दिया है, कि राहुल के तहत काम करने में उन्हें जरा भी रूचि नहीं है। इसलिए राहुल को यह सुनिश्चित करना होगा, कि उनकी पार्टी 201 9 में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरती है। पिछले कुछ वर्षों में उनके ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए यह न के बराबर लगता है।
राहुल की मंशा पर पानी फेरनेवालों में एनसीपी प्रमुख शरद पवार सबसे आगे है। पवार से जब पूछा गया कि राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने के सपने पर उनकी क्या राय है तो उन्होंने कहा कि अभी यह कहना सही नहीं, किसकी कितनी सीट आएंगी। यह तो अभी कोई पक्के तौर पर नहीं बोल सकता है। पवार मानते है, कि अगर 2019 में गठबंधन की सरकार बनी तो कांग्रेस के समर्थन से वह पीएम की कुर्सी पर दावेदारी जता सकते हैं। और बाकी के क्षत्रप भी कमोबेश यही मानते है।
बहरहाल, राहुल ने अपने पत्ते तो खोल दिए है। अब आगे देखना है, कि कर्नाटक का ऊंट किस करवट बैठता और युवराज का अभियान किस दिशा में बढ़ता है।

Friday, April 27, 2018

Can Shiv Sena Go It Alone?

The Shiv Sena, the party sulking for last almost four years, has decided to field its two candidates for the Nashik and Raigad-Ratnagiri-Sindhudurg local authorities constituencies for the Maharashtra Legislative Council elections. It effectively reinforces its stand to have no truck with Bharatiya Janata Party, its longtime ally and presently its bête noire. The election is scheduled to be held next month. A total of six local authorities constituencies would go to polls on May 21.
The politics in Maharashtra for the last few days has been marked by the overtures by BJP to form an alliance with Shiv Sena.Uddhav Thackeray, the executive president of Shiv Sena, announced earlier this year that the party would contest all future elections alone. The announcement was the culmination of a long drawn verbal duel between the two saffron parties. Ever since BJP rode to power, successively at the centre and in state, it rubbed its long time ally wrong way. In its zeal to acquire power on its own, BJP behaved with an aggressive high handedness that offended the party that have endured many a tempests together in over three-decade long journey.
Now the time has come for Shiv Sena to pay in the same coin. Its latest move is viewed as a snub to the BJP’s overtures. The Sena has announced Narendra Darade and Rajeev Sable for Nashik and Raigad-Ratnagiri-Sindhudurg constituencies, respectively as its candidates.The question is - can Shiv Sena maintain the momentum and pay the price of fighting its battles alone. The party may claim that it has a statewide presence but in reality, it is clustered in Mumbai, Konkan and to an extent Paschim (Western) Maharashtra area. Its support mainly from the urban areas. A large base of cadre has migrated first to the Maharashtra Navnirman Sena and now to BJP.
On the part of BJP, it indulged itself in many misadventures post-2014. Many of those misadventures actually paid dividends. However, the sense of realpolitik came soon and it started looking for mending fences with Shiv Sena. The BJP leaders including Chief Minister Devendra Fadnavis, Finance Minister Sudhir Mungantiwar and others have made no bones about their willingness to form an alliance with Shiv Sena. Even though Shiv Sena has resolutely said time and again that it will go alone, no one in political circles believed it. Shiv Sena clinging to power both in Centre as well as in state was seen as its fallibility.
uddhav thackeray devendra fadnavisIn fact BJP wants an alliance not only for this election to Legislative Council but also for next Lok Sabha and Assembly elections. Shiv Sena leadership has not only neglected those overtures, but discarded them out rightly. However, the changing dynamics of Maharashtra politics may force the party to have rethink of its steadfast and adamant stand.
The Congress and NCP that fought alone in last assembly election, against each other and against BJP as well as Shiv Sena also, are now coming closer. They have given enough signals that they may jump in the arena next time as one entity even at the national level. Congress leadership in the form of Rahul Gandhi and NCP (Sharad Pawar) have held meetings and deliberated on possible alliance. Since BJP has acquired many incomers from these parties. it may face no problem in facing the onslaught of combined strength of these parties. Moreover, it also has cadre that is already buoyed by successive victories of BJP in all levels of election. Shiv Sena can't claim this type of comfort.
Moreover, CM Fadnavis has very shrewdly given prominence to MNS leader Raj Thackeray who is seen reviving his party’s lost fortune. By attacking Narendra Modi and Fadnavis as well, Raj Thackeray has tried to occupy opposition space that has been laying vacant due to the lackluster performance by Congress and NCP as opposition parties. Shiv Sena tried to play double game by being in power and at the same time being an opposition party. However, this plan did not work out very well. this was clear by its underperformance in elections after elections. So much so that it was humiliated in its own citadel Mumbai during the municipal election.
Shiv Sena’s strategy seems to rely on capitalizing on anti-incumbency factor and the anger over betrayal (by BJP). However, this anti-incumbency thing is a very dicey preposition - except for media and politically enthused social media circles, this factor has not been especially evident anywhere in the state. Again, this factor will benefit, if at all, to Congress NCP and not Shiv Sena because it was an equal partner in whatever the present government did or did not.
In such a scenario, Shiv Sena’s muscle flexing may actually backfire on it. The move may alienate it's sympathizers and may erode of its voter base. For a solid display and exhibition of political strength, it may be a right move but for a long term gain and goodwill it may prove counterproductive.

Thursday, April 26, 2018

ये धब्बे ऐसे धुलनेवाले नहीं!

कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने आखिर वह बात कबुल ही ली जिसे उनकी पार्टी लगातार नकारते आई है। खुर्शीद ने कांग्रेस को उसका वह दामन दिखा दिया जिससे वह कभी छुटकारा नहीं पा सकती। यह दीगर बात है, कि खुर्शीद ने कांग्रेस के दामन पर सिर्फ मुस्लिमों के खून के धब्बे होने की बात कही थी, जबकि सच यह है, कि उसका दामन मुस्लिम, हिंदू, सिक्ख ऐसे सभी जातियों और प्रांतों के लोगों के खून से सना है।
अपने दामन पर मुसलमानों के "खून के धब्बे" होने की बात कहकर खुर्शीद ने कांग्रेस को सकते में डाल दिया था। रविवार को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के डॉ. बीआर आंबेडकर हॉल में उन्होंने यह बात कही थी। और तबसे कांग्रेस बगलें झांक रही है। उनकी बात से पार्टी नेताओं के कान खड़े हो गए। कार्यकर्ताओं (बचे-खुचे) को काटो तो खून नहीं!
"1947 मे स्वतंत्रता के बाद हाशिमपुरा, मलियाना, मेरठ, मुजफ्फरनगर, मुरादाबाद, भागलपुर, अलीगढ़, बाबरी मस्जिद आदि में मुसलमानों के नरसंहार में कांग्रेस पर मुसलमानों के खून के जो इतने सारे धब्बे हैं इनको आप किन शब्दों से धोना चाहेंगे," खुर्शीद से यह सवाल पूछा था एएमयू के एक निलंबित छात्र आमिर मिंटोई ने।
इस पर खुर्शीद ने कहा, ‘‘यह राजनीतिक सवाल है। हमारे दामन पर खून के धब्बे हैं। कांग्रेस का मैं भी हिस्सा हूं तो मुझे मानने दीजिये कि हमारे दामन पर खून के धब्बे हैं। क्या आप यह कहना चाहते हैं कि चूंकि हमारे दामन पर खून के धब्बे लगे हुए हैं, इसलिए हमें आपके ऊपर होने वाले वार को आगे बढ़कर नहीं रोकना चहिए?‘‘
कांग्रेस प्रवक्ता पी. एल. पुनिया ने कहा है, कि कांग्रेस पार्टी सलमान खुर्शीद के बयान से पूरी तरह अलग करती है। सलमान खुर्शीद पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं, लेकिन जो बयान उन्होंने दिया है उससे कांग्रेस की असहमति है।
आखिर कांग्रेस ऐसे कितने मामलों से पल्लू झाड़ते रहेगी? आजादी से पहले और आजादी के बाद भी कांग्रेस ने हर वर्ग विशेष को लक्ष्यित करते हुए अत्याचार किए है। कांग्रेस एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसने समाज के सभी वर्गों और लोगों को एकसमान प्रताडित किया है। शुरूआत तो बंटवारे के साथ ही हुई थी। उस वक्त पाकिस्तान से आए हिंदुओं को प्रताडित किया गया। अकेले महाराष्ट्र में ही ऐसी कई घटनाएं गिनाई जा सकती है।
उसके बाद महात्मा गांधी की हत्या के बाद आक्रोश के नाम पर कांग्रेसियों ने महाराष्ट्र में ब्राह्मणों पर अत्याचार किए। उनके घर फूंके, उन्हें अपने निवास और गांव से बेदखल किया। आलम यह है, कि पश्चिम महाराष्ट्र में आपको कई देहात ऐसे मिलेंगे जिनमें ब्राह्मण नहीं है। क्योंकि कांग्रेसियों के डर से समय ब्राह्मणों का बड़ी संख्या में पलायन हुआ। मान लिजिए, कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में जो हुआ उसका वह पहला प्रयोग था।






लगभग एक दशक बाद यही कांग्रेस सरकार थी जिसने संयुक्त महाराष्ट्र के लिए आंदोलन करनवाले बेकसूर लोगों पर गोलियां बरसाई। उस आंदोलन में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार ने पूरा बलप्रयोग किया और 105 लोगों की जानें ली। ये लोग कौन थे? ये हर वर्ग, हर जाति के लोग थे।
इसी कांग्रेस के लोगों ने मराठवाडा में नामांतरण आंदोलन के नाम पर दलितों पर अत्याचार किए। तत्कालीन मराठवाडा विश्वविद्यालय का नाम बदलकर डा. बाबासाहब आंबेडकर विश्वविद्यालय करने की मांग दलित गुटों ने की थी। इसका विरोध करनेवाले गुटों में हालांकि शिवसेना जैसी पार्टियां भी ती लेकिन उनमें कांग्रेसी लोग अधिकतर थे। गांव-देहातों के दलितों का खून बहाया गया, कई जगहों पर सरकारी संपत्ति का नुकसान हुआ।
छिटपुट दंगों और झड़पों का तो जिक्र न करें तो ही बेहतर है। कांग्रेस ने किस-किसको अपना विरोधी नहीं बनाया? क्या कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने हिंदूओं को "भगवा आतंकी" नहीं बताया था? क्या कांग्रेस ने कश्मीर से पंडितों के निष्कासन को मौन संमति नहीं दी? क्या कांग्रेस ने श्रीलंका के तमिल गुटों को पहले सहयोग देकर फिर उनसे किनारा नहीं किया? क्या कांग्रेस ने सिक्खों के अलगाववाद को चिंगारी देकर फिर उसे बुझाने की कोशिश नहीं की।
तो यह दामन खून ही खून से लथपथ पड़ा है। यह धब्बे ऐसे धुलनेवाले नहीं है, क्योंकि आप एक सिरो पर धोने की कोशिश करते हो तो दामन का दूसरा सिरा खून से और रंग जाता है। समझ लिजिए खुर्शीद साहब!

Monday, April 23, 2018

हरावे कसे, हे काँग्रेसने शिकावे

देशाच्या राजकारणात काँग्रेसचे स्थान आणि प्रभाव अनन्य आहे. देशाच्या कानाकोपऱ्यात त्याचे अस्तित्व आणि प्रभाव आहे. आता ही गोष्ट खरी, की हा प्रभाव आणि हे अस्तित्व अभूतपूर्व प्रमाणात कमी झाले आहे. तरीही, आपल्या पूर्वीचे गतवैभव प्राप्त करण्याइतके नसले तरी एक सन्माननीय, उल्लेखनीय स्थान परत मिळविण्याची त्याची क्षमता निश्चित आहे.
या पार्श्वभूमीवर काँग्रेसची केविलवाणी नाटके अधिकच दयनीय वाटू लागतात. त्यातून दिसून येते ती पक्षाची पराभूत मानसिकता - जणू आपला राजकीय संघर्ष राजकीय किंवा निवडणुकीय आखाड्यामध्ये करण्याची इच्छाशक्तीच हा पक्ष हरवून बसला आहे आणि त्याऐवजी घटनात्मक संस्थांना संशयाच्या घेऱ्यात आणण्याचा मार्ग तो पत्करत आहे. भारताचे सरन्यायाधीश दीपक मिश्रा यांच्याविरोधात जी चिखलफेक काँग्रेसने आरंभली आहे त्यातून त्याचे किती अधःपात झाले आहे, हे दिसून येते.
उपराष्ट्रपती आणि राज्यसभा अध्यक्ष एम. व्यंकय्या नायडू यांनी मिश्रा यांच्या महाभियोगासाठी विरोधी पक्षांनी दिलेली नोटीस फेटाळून लावली. सात विरोधी पक्षांनी गेल्या आठवड्यात ही नोटीस दिली होती. त्यात सरन्यायाधीशांच्या "गैरवर्तना"चे पाच आधार दिले होते. अन् या विरोधी पक्षांचे नेतृत्व करत होती काँग्रेस!
सोहराबुद्दीन शेख बनावट चकमक प्रकरणाची सुनावणी करणारे न्यायाधीश बी. एच. लोया यांच्या मृत्यूची निष्पक्ष चौकशीची मागणी करणारी याचिका सर्वोच्च न्यायालयाने फेटाळून लावली. त्यानंतर एका दिवसाने महाभियोगाची ही नोटिस देण्यात आली होती.
ही नोटिस फेटाळून लावण्याचा निर्णय घेण्यापूर्वी नायडू यांनी ज्येष्ठ कायदातज्ञांशी व घटनातज्ञांशी चर्चा केली. या ठरावाची व्यवहार्यता तपासण्यासाठी तज्ञांशी चर्चा केल्यानंतर एका दिवसाने त्यांनी हा निर्णय घेतला. विरोधी पक्षांनी शुक्रवारी सात पक्षांच्या 71 खासदारांच्या स्वाक्षऱ्या सादर केल्या होत्या. परंतु यातील सात खासदार आधीच निवृत्त झालेले असल्याचे आढळून आले.
"विरोधी पक्षांच्या नोटिसीवर सात पक्षांच्या 71 खासदारांच्या स्वाक्षऱ्या होत्या. यांपैकी सात खासदार निवृत्त झाले आहेत, परंतु स्वाक्षऱ्यांची संख्या ही आवश्यक असलेल्या 50 स्वाक्षऱ्यांपेक्षा जास्त आहेत," असे काँग्रेसने पत्रकार परिषदेत सांगितले. परंतु हा लंगडा बचाव होता.
नायडू यांनी लोकसभेचे माजी सरचिटणीस सुभाष कश्यप, माजी विधि सचिव पी. के. मल्होत्रा, माजी विधिमंडळ सचिव संजय सिंह आणि राज्यसभा सचिवालयाच्या वरिष्ठ अधिकाऱ्यांशी चर्चा केली.
" मुख्य न्यायाधीशांच्या वर्तनाची चर्चा माध्यमांमध्ये करण्याची (विरोधी) सदस्यांची कृती ही औचित्य आणि संसदीय संकेतांच्या विरुद्ध आहे कारण त्यामुळे सरन्यायाधीश या संस्थेची अवमानना होते," असे नायडू यांनी एका निवेदनात म्हटले.
राज्यघटनेनुसार सरन्यायाधीशांविरुद्ध केवळ सिद्ध झालेले गैलवर्तन किंवा अक्षमता या दोन कारणांनी महाभियोग चालवता येऊ शकतो. विरोधकांनी पाच कारणे दाखवली आहेत आणि ते गैरवर्तन आहेत, असे काँग्रेसचे म्हणणे आहे.





सर्व कायदेशीर तज्ज्ञांनी विरोधकांच्या या मोहिमेवर टीका केली आहे. सर्वोच्च न्यायालयाचे माजी माजी न्यायमूर्ती सुदर्शन रेड्डी यांनी ही आत्मघातकी कृती असल्याचे म्हटले आहे, तर माजी महाधिवक्ते सोली सोराबजी यांनी ती दुर्दैवी असल्याचे म्हटले आहे. आता प्रश्न असा आहे, की हा सेल्फ गोल करण्यावर काँग्रेस इतकी ठाम का आहे?
हे प्रकरण येथे थांबणारे नाही. काँग्रेसची नजर लागली आहे ती 2019 च्या सार्वत्रिक निवडणुकांवर आणि देशात भारतीय जनता पक्षाच्या विरोधात वातावरण असल्याचा तिचा समज आहे. त्यामुळे या संपूर्ण प्रकरणातून मिळता येईल तेवढा फायदा घेण्याचा काँग्रेसचा प्रयत्न आहे. म्हणूनच असंतोष आणि अविश्वासाला जास्तीत जास्त खतपाणी घालण्याचा तिचा प्रयत्न आहे. विद्यमान सरन्यायाधीशांविरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव येण्याची ही पहिलीच वेळ आहे. त्यामुळे त्याचे काय गंभीर परिणाम होतील, याचा विचार तिला करावा लागेल. पण तो तिने केलेला नाही यातून ती किती घायकुतीला आली आहे, हे कळते.
आपला पराभव मान्य करून अधिक जिद्दीने लढा देण्यासाठी काँग्रेसने तयार व्हावे, ही वेळ आता आली आहे. गुजरातमधील निवडणुकीत तिने अत्यंत जोरदार प्रचार मोहीम चालवली. त्यामुळे तिला काहीसा आधार आणि धुगधुगी मिळाली, परंतु ती पुन्हा राहुल गांधीवादी मार्गावर चालू लागली आहे. एकानंतर एक घोडचुका करत आहे. नक्की सांगता येत नाही, परंतु केंब्रिज अॅनालिटिकाचे बिंग फुटल्याचाही हा परिणाम असू शकतो. ते काहीही असो, आपल्या दीर्घकाळच्या राजवटीत तिनेच रूढ केलेल्या क्लृप्त्या तिला पुन्हा शिकाव्या लागतील. पण त्यासाठी तिला नेतृत्वात बदल करावे लागतील, घराण्याचे जोखड फेकावे लागेल आणि ते तर काँग्रेसजनांसाठी 'अब्रह्मण्यम्'!
एकुणात, सध्या काँग्रेसचा एकमेव इलाज म्हणजे पराभव स्वीकारायला शिकणे!

Saturday, April 21, 2018

जज लोया मृत्यू - झूठों का मुंह काला

न्या. लोया की मृत्यू के मामले में, जो अपने आप में साफ था, खुद उच्चतम न्यायालय ने सफाई दी है। अपना राजनीतिक अजेंडा चलाने के लिए जो लोग न्यायालय का उपयोग करना चाहते हैं उनके लिए इससे बड़ा तमाचा और नहीं हो सकता। न्या. बी. एच. लोया की मौत के के पीछे कोई भी गुत्थी नहीं थी और वह तू पूरी तरह से प्राकृतिक कारणों से हुई थी, यह न्यायालय ने बिना लाग लपेट के बता दिया।इतना ही नहीं इस पूरे मामले के पीछे कोई छुपा हुआ अजेंडा होने का का निरीक्षण भी दर्ज किया है। भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्या. खानविलकर और डी. वाई. चंद्रचूड की तीन सदस्यीय पीठ ने अपना फैसला साफ शब्दों में सुनाया है। हालांकि इससे सूचना युद्ध के सैनिकों पर कोई असर होने की गुंजाईश नहीं है।
देश की सभी यंत्रणाओं को लेकर संदेह पैदा करना, गलतफहमियां फैलाना और षड़यंत्र सिद्धांत प्रसारित करने का उनका काम बेखटके चलता रहगा। इस वर्ष के जनवरी महीने में मुख्य न्यायधीश के विरोध में पत्रकार वार्ता कर संदेह का माहैल खड़ा करनेवालों को भी उन्होंने जबरदस्त जमाल गोटा पिलाया है।
न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं के वकील दुष्यंत दवे, इंदिरा जयसिंग और प्रशांत भूषण को भी अच्छी खासी सुनाई है - सुस्पष्ट और निष्पक्ष! अर्थात् आधी रात के बाद न्यायालय के दरवाजे खोल कर साबित आतंकवादी को बचाने का नाट्य उसमें नहीं है, इसलिए उन्हें यह फैसला शायद रास ना आए। उस आशय की प्रतिक्रियाएं भी उनकी तरफ से आई है। संस्थात्मक औचित्य की (सिविलिटी) की साख न रखना और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के विरोध में बेतरतीब आरोप करना, इसके लिए इन तीनों को न्यायालय ने खरी खोटी सुनाई है।
राजनैतिक, व्यक्तिगत और व्यापारी हित संबंधों के लिए जनहित याचिका (पीआइएल) का दुरुपयोग करने को लेकर भी पीठ ने उपदेश सुनाया है। इतना ही नहीं, सीधे-सीधे छूटे और पक्षपाती सामग्री प्रकाशित करनेवाले आंदोलनकारी माध्यमों पर भी न्यायालय ने कटाक्ष किया है। न्याय संस्था को कलंकित करने और न्यायतंत्र को गुमराह करने की यह कोशिश है, यह भी न्यायालय ने ही बता दिया है।
न्या. लोया का निधन दिसंबर 2014 में हार्ट अटैक के कारण हुआ था। नागपुर में अपने एक सहयोगी की बेटी की शादी के लिए कुछ सहयोगियों के साथ वे गए थे। सोहराबुद्दीन शेख के झूटे एन्काउंटर मामले की सुनवाई न्या. लोया के समक्ष चल रही थी।
इस मामले में एक आरोपी थे अमित शाह जो समय भाजपा के अध्यक्ष है। आज की घड़ी में नरेंद्र मोदी के बाद यदि कोई लिबरलों की आंख में खटकता है तो वह अमित शाह है!
निरंजन टकले नामक एक पेशेवर झूठी सामग्री लिखनेवाले पत्रकार ने उतनी ही बराबरी के कैरावान नामक पत्रिका में एक लेख प्रकाशित किया। न्या. लोया की मृत्यू संदेहजनक स्थिति में हुई। आरोपी को छुड़ाने के लिए उन्हें 100 करोड़ रुपयों की ओफर दी गई लेकिन उन्होंने उसे नकार दिया और इसलिए उनका अप्राकृतिक निधन हुआ, इस आशय की सामग्री उसमें थी। यह लेखन काफी हद तक सेमी फिक्शन के माफिक था। टकले की ख्याति ऐसी, कि उनके द्वारा प्रकाशित समाचार (जैसे सावरकर द्वारा माफी मांगना) और शेअर की हुई सामग्री (जैसे कल्पना इनामदार का गोपाल गोडसे की नातिन होना) झूठी साबित हुई है। इस पर प्रश्न पूछनेवाले को वे विकृत और पागल कह सकते हैं इतना लिबरल अधिकार उन्हें है।
कैरावान में प्रकाशित वह लेख वह सीधे-सीधे राजनैतिक अभिनिवेश से लिखा गया था। इसलिए भाजपा-विरोधी मीडिया ने उसे सिर-आंखों पर बिठाया। कांग्रेस पार्टी ने तो उसकी वकालत की ही, राहुल गांधी ने लोया की मृत्यू में भाजपा अध्यक्ष का हाथ होने का संकेत कई बार दिया। इस प्रकरण में उन्होंने पत्रकार वार्ता की थी और 150 सांसदो को साथ में लेकर वे राष्ट्रपति के पास भी पहुंचे थे।
अर्थात् इसमें इस प्रकरण में असल में ही कोई दम नहीं था इसलिए उस का प्रतिफल कुछ होने की संभावना भी नहीं थी। इंडियन एक्सप्रेस जैसे सीधे तौर पर सरकार विरोधी अखबार ने भी कैरावान के लेख को तार-तार कर दिया था। लेकिन न्यूज़ के नाम पर सोशल मीडिया पर ठिकरा फोड़नेवाले किसी भी कलमबाज़ ने इस सफेद झूठ को लेकर एक अक्षर भी नहीं निकाला। जो निकाला वह मोदी-शाह को तोप के मुंह में देने के लिए ही।

लेकिन इस मामले में शायद ऐसा कुछ हुआ जिसकी लिबरल गैंग के को उम्मीद नहीं थी। खुद न्यायाधीश और न्यायालय को ही मुलजिम के कटघरे में खड़ा करने के कारण उच्चतम न्यायालय ने तुरत-फुरत उसकी दखल ली और केवल तीन महीनों में इसकी सुनवाई पूरी की।
अर्थात् न्यायालय सत्य को उजागर करें यह लिबरलों का उद्देश था ही नहीं। जहां आग है वह धुआं है, यह आम मनुष्य की प्रवृत्ति है। इसलिए चाहे जिस तरह से हो इन्हें धुआं खड़ा करना है ताकि आग-आग के ललकारें वे लगा सकें। शायद ऐसा निर्णय आने का उन्हें अंदेशा था इसीलिए जनवरी महीने में न्याय तंत्र के ही कुछ लोगों ने विद्रोह का दृश्य मंचित किया था। अब दूध और पानी अलग होने के बावजूद दूध में पानी होने का संदेह कायम रहेगा।
न्यायाधीश पर ही गुर्रानेवाले वरिष्ठ वकील, सुपारी लेकर सामग्री प्रकाशित और प्रसारित करनेवाली मीडिया और पूरी तरह परावलंबी बुद्धि के गैर-जिम्मेदाराना राजनेताओं से न्यायतंत्र और देश को बचाने की जरूरत है।
लिबरलों का पसंदीदा वाक्य प्रयोग करें तो - "पहले कभी नहीं इतनी जरूरत है"!

Friday, April 20, 2018

लोया मृत्यू प्रकरण - खोट्याच्या कपाळी गोटा

न्यायमूर्ती लोया यांच्या मृत्यूच्या मुळातच संशयातीत असलेल्या प्रकरणात सर्वोच्च न्यायालयानेच निर्वाळा दिला आहे. स्वतःचा राजकीय कार्यक्रम चालविण्यासाठी जे लोक न्यायालयाचा वापर करू इच्छितात त्यांच्यासाठी यापेक्षा अधिक जबरदस्त चपराक असू शकत नाही. न्यायमूर्ती बी. एच. लोया यांच्या निधनामागे कोणतेही गूढ नव्हते आणि हा संपूर्णपणे नैसर्गिक कारणांमुळे झालेला मृत्यू होता, असे न्यायालयाने कोणताही आडपडदा न ठेवता सांगितले. इतकेच नव्हे, तर या याचिकेमागे एखादा छुपा हेतू असल्याचेही निरीक्षण नोंदविले. भारताचे मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ती ए. एम. खानविलकर आणि डी. वाय. चंद्रचूड यांच्या तीन सदस्यीय खंडपीठाने आपला फैसला स्वच्छ शब्दांत सुनावला. अर्थात माहितीयुद्धाच्या शिपायांना यामुळे फरक पडणार नाही. देशातील सर्व यंत्रणांबद्दल संशय निर्माण करणे, गैरसमज आणि कट-सिद्धांत (कन्स्पायरसी थेअरीज) पसरविणे ही त्यांची कामे सुखेनैव चालू राहणार आहेत. या वर्षीच्या जानेवारी महिन्यात मुख्य न्यायाधीशांच्या विरोधात पत्रकार परिषद घेऊन संशयाचे धुके निर्माण करणाऱ्या न्यायालयीन मुखंडांनाही त्यांनी परस्पर जमालगोटा दिला आहे.


न्या. चंद्रचूड यांनी संपूर्ण खंडपीठाच्या वतीने हा निकाल दिला आहे. यात याचिकाकर्त्यांचे वकील दुष्यंत दवे, इंदिरा जयसिंग आणि प्रशांत भूषण यांनाही खडे बोल सुनावले आहेत - सुस्पष्ट व निष्पक्षपणे. अर्थात मध्यरात्रीनंतर न्यायालयाचे दरवाजे उघडून सुसिद्ध दहशतवाद्याला वाचविण्याचे नाट्य त्यात नसल्यामुळे त्यांना हा निकाल अळणी वाटणारच. तशा प्रतिक्रिया त्यांच्याकडून आल्याही आहेत. संस्थात्मक औचित्याची (सिव्हिलिटी) बून न राखणे आणि सर्वोच्च न्यायालयाच्या न्यायाधीशांविरूद्ध बेछूट आरोप कऱणे, याबद्दल या तिघांचीही कानउघाडणी न्यायालयाने केली आहे.


राजकीय, वैयक्तिक आणि व्यापारी हितसंबंधांसाठी सार्वजनिक हित याचिकांचा (पीआयएल) गैरवापर करण्याबद्दल खंडपीठाने चार उपदेशाचे बोलही सुनावले आहेत. इतकेच कशाला, सरळसरळ खोटा आणि पक्षपाती मजकूर प्रसिद्ध करणाऱ्या चळवळ्या माध्यमांवरही न्यायालयाने ताशेरे ओढले आहेत. न्यायसंस्थेला कलंकित करण्याचा आणि न्यायव्यवस्थेची दिशाभूल करण्याचा प्रयत्न करण्यात आल्याचेही खंडपीठाने म्हटले आहे.


न्या. लोया यांचे डिसेंबर 2014 मध्ये हृदयविकाराच्या झटक्याने निधन झाले होते. नागपूरच्या एका सहकाऱ्याच्या मुलीच्या लग्नासाठी ते काही न्यायाधीशांसोबत गेले होते. सोहराबुद्दीन शेख बनावट चकमक प्रकरणाची सुनावणी सीबीआय न्यायालयाकडे होती आणि ती सुनावणी न्या. लोयांसमोर चालू होती. या खटल्यातील एक आरोपी होते अमित शाह आणि ते सध्या भाजपाचे अध्यक्ष आहेत. आजच्या घडीला नरेंद्र मोदी यांच्याखालोखाल लिबरलांना जर कोणी खटकत असेल तर ते अमित शाह.


निरंजन टकले नावाच्या एका सराईत बनावट मजकूरबाजाने तितक्याच तोलामोलाच्या कॅराव्हान नावाच्या मासिकात एक लेख प्रकाशित केला. न्या. लोया यांचा मृत्यू संशयास्पद स्थितीत झाला. आरोपीला सोडविण्यासाठी त्यांना 100 कोटी रुपयांची ऑफर देण्यात आली पण त्यांनी तिला नकार दिला आणि त्यामुळे त्यांचा अनैसर्गिक मृत्यू झाला, अशा आशयाचा मजकूर त्यात होता. यातील लेखन हे बऱ्यापैकी सेमी-फिक्शन (अर्धकाल्पनिक) म्हणावे असे होते. टकले यांची ख्याती अशी, की त्यांनी प्रकाशित केलेल्या बातम्या (सावरकरांची माफी) किंवा शेअर केलेले साहित्य (कल्पना इनामदार या गोपाळ गोडसेंची नात असणे) या खोट्या निघाल्या आहेत. त्यावर प्रश्न विचारणाऱ्या लोकांना ते विकृत आणि वेडा म्हणू शकतात. एवढा लिबरल अधिकार त्यांच्याकडे आहे.
कॅराव्हानमधील तो लेख उघड उघड राजकीय अभिनिवेशाने लिहिला होता. त्यामुळे भाजपविरोधी माध्यमांनी त्याला डोक्यावर घेऊन नाचणे स्वाभाविकच होते. कॉंग्रेस पक्षाने तर त्याची भलामण केलीच; राहुल गांधींनी लोया यांच्या मृत्यूमागे भाजप अध्यक्षांचा हात असल्याचे अनेकदा सुचविले. या प्रकरणी पत्रकार परिषद घेतली होती. दीडशे खासदारांना सोबत घेऊन राष्ट्रपतींकडे गेले होते.


अर्थात यात आडातच काही पाणी नव्हते, त्यामुळे पोहऱ्यात काही असण्याचाही संभव नव्हता. इंडियन एक्स्प्रेससारख्या स्वच्छपणे सरकारविरोधी असणाऱ्या वृत्तपत्रानेही कॅराव्हानमधील लेखाच्या चिंधड्या उडविल्या होत्या. परंतु फेक न्यूजच्या नावाने सोशल मीडियावर आगपाखड करणाऱ्या एकाही लेखणीपुंगवाने एका पत्रकाराने केलेल्या या धडधडीत सत्यालापाबद्दल अवाक्षरही काढले नाही. असलेच, तर ते मोदी-शहा जोडगोळीला तोफेच्या तोंडी देण्यासाठीच!



पण लिबरल गँगला अनपेक्षित असे काही या प्रकरणात घडले असावे. खुद्द न्यायाधीश आणि न्यायालयालाच आरोपीच्या पिंजऱ्यात उभे केल्यामुळे सर्वोच्च न्यायालयाने त्याची तातडीने दखल घेतली आणि केवळ तीन महिन्यांत त्याची सुनावणी पूर्ण केली.


अर्थात न्यायालयाने सत्य समोर आणावे, हा लिबरलांचा मुळी उद्देशच नव्हता. एरवी त्यांच्या मुलाने खुलासा केल्यानंतरच हे प्रकरण थांबायला हरकत नव्हती. आगीशिवाय धूर असू शकत नाही, ही सर्वसामान्य मानवी वृत्ती आहे. त्यामुळे कुठल्याही मार्गाने का होईना धुराळा निर्माण करायचा आणि धूर-धूर म्हणून आगीचा आभास निर्माण करायचा, हा त्यांचा उद्देश आहे. हे असे निर्णय येण्याची अपेक्षा असल्यामुळेच असावे कदाचित परंतु जानेवारी महिन्यात न्यायव्यवस्थेतील काही जणांनी बंडाचा देखावा उभा करून तिथेही संशय निर्माण केला. आता दूध आणि पाणी वेगळे झाले तरी दुधात पाणी असल्याची शंका कायम राहणारच.
न्यायाधीशांवरच गुरकावणारे ज्येष्ठ वकील, सुपारी मजकूर छापणारे माध्यम आणि सर्वस्वी परभृत बुद्धीचे बेजबाबदार राजकारणी - न्यायव्यवस्थेला आणि देशाला त्यांच्यापासून वाचविण्याची गरज आहे. लिबरलांचे आवडते वाक्य वापरायचे तर 'कधी नव्हे एवढी गरज आहे.'

Thursday, April 19, 2018

काश केरल इंडिया में होता… काश श्रीजीत कश्मीरी होता!

इस देश में मानवाधिकार और अत्याचार विरोध के नाम पर एक बड़ा तबका सक्रिय है। देश में कहीं भी, कुछ भी घट रहा हो जिसमें ऊपरी तौर पर, सतही तौर पर कोई हिंदू अपराधी है तो यह वर्ग धड़ल्ले से आगे आकर अपनी बातें सामने रखता है। मेंढक को जिस तरह बारिश की सुगबुगाहट लगती है, गिद्ध को जैसे मांस की बू आती है, मच्छरों को जैसे गटर की खबर लगती है और चीटियों को जैसे गुड़ का पता चल लगता है वैसे ही इन लोगों को अत्याचार, ज़ुल्म और अन्याय आदि की सुगबुगाहट लगती है और तरह-तरह के चोलों में यह लोग सामने आने लगते है। लिबरल, सेकुलर माध्यमों के कृपा प्रसाद से इन्हें अच्छी खासी सुर्खियां भी मिल जाती है। इनकी शर्त बस इतनी होती है, कि इन सारी घटनाओं में पीड़ित व्यक्ति हिंदू नहीं होना चाहिए या उसे अपने भारतीयता पर गर्व नहीं होना चाहिए।


ऐसा नहीं होता तो इन लोगों के रडार पर सिर्फ कश्मीर के आतंकवादी या बस्तर के नक्सली नहीं होते। केरल में जिस तरह अपने भारतीय होने पर गर्व करने वालों पर जुल्म हो रहे है उसकी सुध बुध वह लोग जरूर लेते। श्रीनगर में किसी को जीप से बांधने पर इनका दिल जिस तरह कसमसाता है वैसे ही केरल में किसी का हाथ पांव तोड़ने पर उनके मन में टीस उठती।


अभी ताजा बात लीजिए। पिछले 2 दिनों से केरल जल रहा है। जम्मू कश्मीर के कठुआ और उत्तर प्रदेश के उन्नाव की घटनाओं के विरोध में केरल की कुछ कथित न्यायवादी संगठनों ने जगह-जगह मोर्चे निकालें। अब केरल में तो कम्युनिस्टों का राज है और जैसे कि कम्युनिस्ट शासन में होता ,है हर विरोध प्रदर्शन हिंसा में तब्दील हो जाता है। उसी तरह राज्य में कई स्थानों पर हिंसा हुई। खासकर कासरगोड जिले में नडप्पुरम, वडक्करा और पेरंबरा इन जगहों पर बुधवार को हुई हिंसा की कई घटनाएं दर्ज हुई। विलियापल्ली नामक गांव में भाजपा के कार्यालय पर हमला हुआ। पेरंबरा में शिवाजी सेना नामक संगठन के दो कार्यकर्ताओं पर बम हमला हुआ। अंदेशा यह है, कि यह हमला सीपीएम के कार्यकर्ताओं ने किया।


केरल पुलिस का कहना है, कि कठुआ उन्नाव की घटनाओं के विरोध विभिन्न संगठनों ने विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया था। पुलिस ने कहा कि हमने 900 लोगों को गिरफ्तार किया है। ये सभी लोग 16 अप्रैल को हड़ताल के नाम हिंसा कर रहे थे। गौरतलब है कि इस हड़ताल की पूर्व सूचना पुलिस को नहीं दी गई थी। ‘चलो कोजीकोड’ नामक इस मार्च की अपील व्हाट्सअप के माध्यम से एसडीपी के कार्यकर्ताओं ने फैलाई थी।


कुछ इसी तरह का मामला श्रीजीत का है। श्रीजीत नामक युवक को पुलिस ने एक खून के सिलसिले में गिरफ्तार किया था। पुलिस का कहना था की मृतक व्यक्ति के बेटे ने सृजित का नाम लिया था, इसलिए उसे गिरफ्तार किया गया था। हालांकि पुलिस कस्टडी में उसकी मौत हो गई। बाद में स्थानीय मीडिया ने जब मामला उछाला और उसकी तहकीकात की, तो पुलिस का यह बयान सफेद झूठ निकला। खुद मृतक के व्यक्ति ने कहा कि उसने श्रीजीत का नाम कभी नहीं लिया था। पूरी फजीहत होने के बाद सरकार ने सात पुलिसकर्मियों को निलंबित किया। इन पुलिसकर्मियों ने ताजा आरोप किया है, कि उन्हें फंसाया जा रहा है और वास्तविक दोषी कोई और है। यह कोई मायने नहीं रखता, कि श्रीजीत दलित था। चूंकि वह भाजपा से संबंधित था इसलिए उसका मरना वाजिब था शायद। 


लेकिन इस मामले की रत्ती भर भी रिपोर्टिंग खुद को राष्ट्रीय मीडिया कहलाने वालों ने या मानवाधिकार के पैरोकारों ने नहीं की। उनके लिए यह मामला जैसे कभी हुआ ही नहीं। और राज्य में कम्युनिस्टों द्वारा मारे गए अनगिनत संघ भाजपा या कांग्रेस कार्यकर्ताओं की तो हम बात ही नहीं कर रहे है। इस दोगलेपन को लिबरिजम या उदारवाद या सेकुलरिज्म कहते है।


लुटियंस की नगरी में सुस्थापित लिबरलियों और सेकुलरों के लिए आइडिया ऑफ इंडिया बहुत मायने रखती है। जब भी भारत की बात आती है, भारतीय परंपराओं का बखान होता है तब इस नेहरूवादी आइडिया ऑफ इंडिया की बातें काफी उछाली जाती है। चूंकि केरल में कम्युनिस्टों का दबदबा है और कम्युनिस्टों की हिंसा के भुक्तभोगी हिंदुत्ववादी शक्तियां है, इसलिए शायद उनके आइडिया ऑफ इंडिया के मानचित्र में केरल नहीं आता है। उनके मानवीय सरोकारों में श्रीजीत जैसे लोग नहीं आते है, क्योंकि शायद वह मनुष्य ना हो या फिर अधिकार प्राप्त करने की योग्यता उन मानवों में नहीं हो। बहरहाल, इस दोगलेपन का अपना एक तंत्र है जो हमें इससे अवगत नहीं होने देता। विचारों के परदे के पीछे उसे छुपाये रखता है।


शुक्र है हमारे पास सोशल मीडिया जैसे वैकल्पिक समाचार स्रोत है जिनके कारण यह दोगलापन समय-समय पर उजागर होता है। लेकिन एक चिंतित नागरिक के नाते यह विचार मन में अपने आप आता है, कि काश! इनके इंडिया में केरल होता, कि काश! श्रीजीत भी कश्मीरी होता!

Friday, March 30, 2018

Beyond Lingayat Hype, Something Else May Haunt Siddaramaiah

Even as political pundits are engaged in heated debate over what the possible impact of Chief Minister Siddaramaiah's decision to accord separate status of religion to Lingayats in Karnataka would be, there is something else that may haunt him in the long run. And that is large number of farmer's suicide in the state. Karnataka, one of the most naturally abundant states in India, is facing a severe crisis of droughts and weak agriculture. According to state's own statistics department, as many as 3,515 farmers in Karnataka have committed suicide between April 2013 and November 2017. Of these, 2,525 suicides were due to drought and farm failure, as per the state agriculture department said.


According to a PTI report in December 2017, 3,515 farmers were reported to have committed suicide from April 2013 to November 2017; from April 2008 to April 2012, as many as 1,125 farmers were reported to have committed suicide.Out of the 3,515 suicide cases reported, the agriculture department accepted 2,525 cases as being due to drought and crop failure, the data said.


Agriculture Director B.Y. Srinivas told mediapersons that as many as 112 suicide cases were pending for the want of ratification by a state government panel since 2013. The highest number of suicides (1,483) were reported during 2015-16 and lowest (106) during 2013-14, Srinivas said. "Sugarcane growers top the list of suicides, followed by cotton and paddy cultivators," and


"As many as 1,332 cases have been registered against money lenders, of which 585 have been arrested in last three years," were the statements attributed to him.



The farmers who committed suicides included the cultivators of coconut, paddy, areca nut, cash crops and various others. It is just behind Maharashtra in terms of farmers in distress. The signs of this distress are evident even now through the numerous marches that have been taken out in various parts of the state during last few years. The Maharashtra is still in rough weather on resolving the agrarian crisis that has engulfed the state and dented the state's image in a big way.


It is a common knowledge that the Siddaramaiah government has failed to address the farmers' plight effectively. So obviously enough, the government is pushed to the corner over the issue. And hence, Siddaramaiah finds it necessary to conjure up issues that have more sentimental appeal than the practical one. Thus, imposition of Hindi and separate flag becomes more pertinent issue than the rising number of farmers' suicides. Separate Lingayat religion becomes more important than the environmental degradation in cities like Bangalore.


The state government has faced flak for its utter failure in resolving many issues. Moreover, the pulbic opinion is largely becoming hostile to the government due to its failure in arresting the criminialisation of politics. And just ahead of the assembly elections, it has tried to divide Lingayats and Veerashaivas, also Lingayats and other communities, by announcing minority status for them. All this manuevering may bring headlines and mileage to the Congress, but it cannot ensure victory in the electoral fray.

Thursday, March 22, 2018

हलकटपणाची हद्द!

अखेर विधानसभा निवडणुकीच्या ऐन तोंडावर कर्नाटकचे मुख्यमंत्री सिद्धरामय्या यांनी लिंगायत हा धर्म असल्याचे जाहीर केले आहे. लिंगायत धर्मासंबंधी सरकारने नेमलेल्या न्या. नागमोहनदास समितीच्या शिफारशी मान्य करून हा निर्णय घेण्यात आला आहे. अर्थात एखाद्या समुदायाला स्वतंत्र धर्म म्हणून जाहीर करण्याचे अधिकार अद्याप तरी केंद्राकडे आहेत. त्यामुळे हा प्रस्ताव केंद्र सरकारकडे मंजुरीसाठी पाठविण्यात येणार आहे. केंद्राने तो स्वीकारला (ते शक्य नाही) तर सिद्धरामय्यांची चित आणि नाकारला (ही शक्यता जास्त) तर त्यांचाच पट!


लिंगायत हा धर्म असल्याचा विषय गेल्या काही महिन्यांपासून गॅसवर तापवत ठेवलाच होता. स्वतंत्र लिंगायत धर्माच्या मागणीसाठी कर्नाटक व महाराष्ट्रात मोर्चे निघाले होते. कर्नाटकातील काँग्रेस सरकारने लिंगायत समुदायाला केवळ स्वतंत्र धर्मच नव्हे, तर अल्पसंख्याक दर्जा देण्याचीही शिफारस केली आहे. दोन गटांमध्ये जातीय, प्रादेशिक किंवा धार्मिक वाद पेटविण्याची एक स्वतंत्र कला काँग्रेसने विकसित केली आहे.


गेल्या लोकसभा निवडणुकीच्या आधी 2013 साली काँग्रेसने अशाच प्रकारे आंध्र प्रदेश आणि तेलंगाणात पेटवापेटवी केली होती. त्याचे परिणाम आजही या दोन राज्यांना भोगावे लागत आहेत. त्याच्याही आधी सच्चर अहवालाच्या नावाखाली मुस्लिमांना उचकावण्याचे प्रयत्न झालेच होते. जातीय दंगली प्रतिबंधक कायद्याच्या विरोधात विधेयकाच्या नावाखालीही बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक अशा रीतीने झुंजविण्याचा डाव होताच. त्यातच आता राजकीय लाभासाठी ही नवी खेळी.


लिंगायत हा समुदाय कर्नाटकातील एकूण लोकसंख्येपैकी 17% असून तो मतदारांमध्ये सर्वात मोठा हिस्सा आहे. लिंगायत समुदायातील वीरेंद्र पाटील या मुख्यमंत्र्याला काँग्रेसने 1990 मध्ये अत्यंत मानहानीकारक पद्धतीने काढले होते (पक्षाच्या नेहमीच्या पद्धतीने). तेव्हापासून हा समुदाय काँग्रेसच्या बाजूला गेला, खासकरून उत्तर कर्नाटकमध्ये. काही काळ या समुदायाने रामकृष्ण हेगडे यांच्या नेतृत्वाखालील जनता परिवाराला साथ दिली आणि त्यानंतर भारतीय जनता पक्षाला. गेल्या अनेक निवडणुकांमध्ये या समुदायाने भाजपला साथ दिली. दहा वर्षांपूर्वी दक्षिण भारतात पहिल्यांदा कमळ उगविले होते त्यामागे याच समुदायाचा पाठिंबा होता, असे मानले जाते. येडियुराप्पा यांच्या रूपाने या समुदायातील एक व्यक्ती भाजपचे नेतृत्व करत आहे. भाजपची हीच पारंपरिक मते फोडण्यासाठी काँग्रेसने हा निर्णय घेतला आहे. तेही विधानसभा निवडणुकीला काही दिवस शिल्लक असताना!


अर्थात लिंगायत धर्म हाही काही एकजिनसी गट नाही. त्यात वीरशैव आणि लिंगायत असे दोन भाग आहेत आणि दोन्ही गटांमध्ये या मुद्द्यावर एकमत नाही. न्या. नागमोहनदास यांच्या समितीच्या अहवाल स्वीकारू नये. स्वतंत्र धर्म म्हणून मान्यता द्यायचीच असेल तर वीरशैव-लिंगायत असे नाव द्यावे, अशी मागनी वीरशैव गटाने केली होती. कालच्याच घोषणेनंतर गुलबर्गा येथील वल्लभभाई पटेल चौकात वीरशैव आणि लिंगायत समुदायातील कार्यकर्त्यांमध्ये तुंबळ हाणामारी झाली. लिंगायत धर्माला विरोध करून वीरशैव नेते आणि कार्यकर्त्यांनी घोषणबाजी केली. तेव्हा लिंगायत धर्मवादी कार्यकर्त्यांनी त्यांना विरोध केला आणि संघर्ष घडला.


या दोन गटांतील मतभेद दूर करण्यासाठी राज्य सरकारने लिंगायत धर्मात वीरशैव समुदायाचाही समावेश केला आहे. परंतु त्याचा फायदा होण्याची फारशी शक्यता नाही. कारण त्याच्या विरोधात आवाज वीरशैव गटानेच दिला आहे. 'स्वतंत्र लिंगायत धर्माला मान्यता देण्याची शिफारस राज्य सरकारने केंद्राकडे केली आहे. समाजाला विभाजित करण्याचा प्रयत्न करणाऱ्यांविरुद्ध धर्मयुद्ध सुरू करावे लागेल,' असे बाळेहान्नूर येथील रंभापुरि पीठाचे महाराज वीरसोमेश्वर शिवाचार्य स्वामीजी यांनी म्हटले आहे. वीरशैव-लिंगायत धर्मियांना विभाजित करणाऱ्या राजकारण्यांना (येथे काँग्रेस असे वाचावे) धडा शिकवण्याचे आवाहन त्यांनी मतदारांना केले आहे. "आमच्या धर्माचे विभाजन झाल्यास आम्ही न्यायालयात जाऊ," असा इशाराही त्यांनी दिला आहे.


मुख्यमंत्रि सिद्धरामय्या यांनी वीरशैव व लिंगायत यांना स्वतंत्र धर्म जाहीर करण्यामागे छुपा अजेंडा असल्याचा आरोप माजी मुख्यमंत्री व धर्मनिरपेक्ष जनता दलाचे अध्यक्ष एच. डी. कुमारस्वामी यांनीही केला आहे. 'समाजाला एकत्र करणे आणि चालवणे ही सरकारची जबाबदारी असते. धार्मिक विषय ठरविण्याचे काम धर्माधिकाऱ्यांचे असते. या मुद्द्यावरून आता संघर्ष सुरू होईल आणि त्याचे परिणाम मुख्यमंत्र्यांना भोगावे लागतील,' असे त्यांनी म्हटले आहे.


थोडक्यात म्हणजे हिंदीविरोधा आंदोलनाला फूस देण्यापासून सुरू झालेला सिद्धरामय्या यांचा प्रवास आता थेट हिंदूंमध्ये फूट पाडण्यापर्यंत आला आहे. हलकटपणाची ही हद्द आहे. सत्तेसाठी केवढा हा अनाचार!

विकास गांडो थयो हतो, हवे एक्स्पोझ थयो छे...

Congress trump formulaही गोष्ट आहे गेल्या जुलै महिन्यातील. अमेरिकेत अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितीत डोनाल्ड ट्रम्प यांना अध्यक्षपद निवडणूक जिंकून देणाऱ्या चाणक्याने त्यावेळी भारताचा दौरा केला होता. या पाश्चिमात्य चाणक्याने त्यावेळी विरोधी पक्षातील अनेक नेत्यांच्या गाठीभेटी घेतल्या होत्या. मोदींना मात देण्यासाठी विरोधक या चाणक्याची मदत घेणार असल्याची दिल्लीत चर्चा होती.
अलेक्झांडर निक्स हे त्या चाणक्याचे नाव आणि हे निक्स कोण होते? तर आज डाटाचोरीच्या प्रकरणात जगभरात शेणफेकीला तोंड देत असलेल्या केम्ब्रिज अॅनालिटीका कंपनीचे मुख्य कार्यकारी अधिकारी. याच कंपनीने 2016 साली अध्यक्षीय निवडणुकीत डोनाल्ड ट्रम्प यांची प्रचार मोहीम राबविली होती. 'मेक अमेरिका ग्रेट अगेन' हा लक्षवेधक नारा याच निक्स यांनी ट्रम्प यांच्यासाठी घडविला होता. निक्स हे केवळ 24 तासांसाठी भारतात येऊन गेले होते.
त्यावेळी दिल्लीत अशी चर्चा होती, की निक्स हे विरोधकांच्या वतीने 2019 मधील लोकसभा निवडणुकीत मोदी यांच्यावर मात करण्याची रणनीती तयार करतील. त्यासाठी निक्स यांनी विरोधकांतील काही नेत्यांच्या मुलाखतीही घेतल्याचे सांगितले जात होते. संयुक्त जनता दलाचे नेते के. सी. त्यागी यांचे चिरंजीव अंबरीश त्यागी हे निक्स यांच्या त्या टीममध्ये सामील होते. त्यावेळी त्यागी यांनी निक्स हे भारतात फक्त 24 तासांसाठी येऊन गेल्याचे नेटवर्क 18 वाहिनीला सांगितले होते. तसेच काही नेत्यांशी चर्चा झाल्याचेही त्यांनी मान्य केले होते. हे अंबरीश ट्रम्प यांच्या मोहिमेच्या टीमचा भाग होते आणि बिहार विधानसभा निवडणुकीत त्यांनी नीतीश कुमार यांच्या सोशल मीडिया मोहिमेचे काम सांभाळले होते.
त्यानंतर तीन-चार महिन्यांनंतर राहुल गांधी यांच्या ट्विटर खात्यावर त्यांच्या अनुयायांची संख्या अचानक वाढली होती. त्यावेळी रशिया आणि कझाकस्तानातून बोट्सद्वारे त्यांच्या ट्विट्सला रिट्वीट करण्यात येत असल्याचे उघड झाले होते. त्यानंतर गुजरात निवडणुकांच्या वेळेस अचानक काँग्रेसच्या सोशल मीडिया मोहिमेला मोठा प्रतिसाद मिळू लागला (किंवा खरे सांगायचे तर मोठा प्रतिसाद मिळत असल्याचे चित्र निर्माण करण्यात आले).
काल फेसबुक डाटाचोरीच्या प्रकरणातून भारतीय जनता पक्ष आणि काँग्रेसमध्ये जी लठमार होळी खेळल्या जात होती, ती पाहून हे सर्व धागेदोरे आपोआप आठवत गेले. अमेरिकेसहित ब्रिटन, केनिया, ब्राझील अशा देशांच्या निवडणुकांमध्ये 5 कोटी फेसबुक सदस्यांची गोपनीय माहिती चोरून मतदारांवर प्रभाव पाडण्याचा आरोप आता या केम्ब्रिज अॅनालिटीकावर लागत आहे.
या कंपनीची सेवा काँग्रेस घेणार असल्याची टीका भाजपने केली आहे, तर काँग्रेसने हा आरोप सपशेल नाकारला आहे. लोकशाही आणि फेसबुक वापरकर्त्यांच्या दृष्टीने भारत हा सर्वात मोठा देश आहे. भारतात फेसबुकचे 25 कोटी वापरकर्ते आहेत. त्यामुळे हा मुद्दा गंभीर आहे.
काँग्रेसने कितीही नाकारले तरी केम्ब्रिज अॅनालिटिका आणि पक्षाचा संबंध त्याला नाकारता येणार नाही. या कंपनीने राहुल गांधींची प्रतिमा उजळण्यासाठी किती पराकाष्ठा केली आहे, याचे गोडवे अगदी काही दिवसांपर्यंत प्रसारमाध्यमांनी गायले होते. काही जणांनी तर या कंपनीला काँग्रेसचे ब्रह्मास्त्र म्हटले होते.
शिवाय डाटाचोरीच्या संदर्भातील काँग्रेसवर हा काही पहिलाच आरोप नाही. राहुल गांधी यांनी नियुक्त केलेले चीफ ऑफ डेटा अॅनालेटिक्स प्रवीण चक्रवर्ती यांच्यावरदेखील डाटाचोरीचा आरोप आहे. चक्रवर्ती यांच्यावर त्यांच्या अमेरिकेतील माजी मालकाने म्हणजे थॉमस विझेल यांनी डाटाचोरीचा गुन्हा दाखल केला आहे, असे इकॉनॉमिक टाईम्सने म्हटले आहे.
इतकेच कशाला, केम्ब्रिज अॅनालिटिका आणि तिची भागीदार कंपनी ओव्हलेनो हिच्याशी आपला काही संबंध नाही, असे काँग्रेसने म्हटले आहे. परंतु हे तद्दन खोटे असून ओव्हलेनोचे मुख्य कार्यकारी अधिकारी 2011-12 या काळात माझ्या संपर्कात होते आणि मला काँग्रेसच्या वतीने तिला डाटा देण्यास सांगण्यात आले होते, असे काँग्रेसचे बंडखोर नेते शहजाद पूनावाला यांनी सांगितले आहे.
गुजरात निवडणुकांच्या आगेमागे विकास गांडो थयो छे हा हॅशटॅग अत्यंत लोकप्रिय झाला होता. त्यामागे कोणाचा हात होता, हे आता स्पष्ट व्हायला हरकत नाही. त्यामुळे असे म्हणायला हरकत नाही, की विकास गांडो थयो हतो, हवे एक्स्पोझ थयो छे... (विकास वेडा झाला होता, आता एक्स्पोझ झाला आहे).