भारत के प्रधान न्यायाधीश ( सीजेआई) दीपक मिश्रा पर महाभियोग चलाने की पहल सरासर पक्षपातपूर्ण राजनीति से प्रेरित है। यह एक अशुभ और अनुचित कदम है। इससे हासिल तो कुछ होनेवाला नहीं है, लेकिन एक संवैधानिक संस्था के सार्वजनिक रूतबे पर यह जरूर प्रहार करेगा। इस तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं पर टूटते विश्वास में ही इजाफा होगा। हमारे सार्वजनिक जीवन में मुठ्ठीभर संस्थाएं बची है जिनकी ओर अभी भी इज्जत से देखा जाता है और उसी इज्जत को तार-तार करने की यह शगल है। यह पहला मौका है, जब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग की तैयारी हो रही है। इससे पहले उच्च अदालतों के दो जजों के खिलाफ महाभियोग लाया गया था, लेकिन उसे पास नहीं कराया जा सका।
हमेशा की तरह इस ध्वंसकार्य का नेतृत्व कांग्रेस पार्टी ही कर रही है, हालांकि इसके लिए उसके पास कोई पुख्ता वजह नहीं है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार इस प्रस्ताव पर विपक्ष के कई दलों के नेताओं ने हस्ताक्षर किए हैं। इन दलों में राकांपा, वामदल, तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस भी शामिल हैं। कांग्रेस द्वारा लगाए गए आरोप न केवल बहुत महीन बल्कि बेजान भी है। कानून और नैतिकता की कसौटी पर वे एक पल भी नहीं ठहर सकते। चाहे सीजेआई ने विशेष न्यायाधीशों को मामले सौंपने के लिए अपनी विशेष शक्ति का इस्तेमाल किया हो या नहीं अथवा उनमें से कुछ की सुनवाई खुद करना पसंद किया हो, यह महाभियोग का कारण नहीं हो सकता।
अपने राजनीतिक भविष्य से चिंतित इन दलों का सबसे बड़ा ऐतराज यह है, कि न्या. मिश्रा राजनीतिक रूप से संवेदनशील एक मामले की सुनवाई खुद कर रहे है। इसलिए उनके विरोधियों का बौखलाना स्वाभाविक है। लेकिन इससे उनके आरोपों को वजन मिलने का कोई कारण नहीं है। बल्कि सीजेआई ने किसी विशेष मामले को अपने पसंद की किसी दूसरी पीठ पर निर्दिष्ट करने के बजाय खुद सुना इस तरह का आरोप लगाकर ये लोग इसी तर्क को बल देते है, कि वह दूसरा बेंच इनके द्वारा फिक्स था। एक मेडिकल कॉलेज से जुड़े मामले में राहत देने में मुख्य न्यायाधीश शामिल थे, इस आरोप में भी कोई दम नहीं है।
इस महाभियोग के प्रस्तावकों का संपूर्ण ध्यान सरकार को शर्मिंदा करने के लिए न्यायपालिका का उपयोग करने पर है, जबकि राजनीतिक किचड़-उछाल के लिए न्यायपालिका का उपयोग न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए सीजेआई प्रयास कर रहे है। वैसे न्या. मिश्रा का रिकार्ड शानदार रहा है। वे उस पीठ का हिस्सा थे जिसने 16 दिसंबर को हुए सामूहिक बलात्कार मामले में चार दोषियों को मौत की सजा की पुष्टि की थी और सिनेमा हॉलों में राष्ट्रगान को अनिवार्य बनाने का आदेश पारित किया था। न्यायमूर्ति मिश्रा वर्तमान में उस पीठ की अध्यक्षता कर रहे हैं जो कावेरी तथा कृष्णा नदी जल विवाद, बीसीसीआई सुधार और सहारा मामले समेत कई अन्य मामलों की सुनवाई कर रही है। न्यायमूर्ति मिश्रा 2 अक्तूबर 2018 तक अपने पद पर सेवाएं देनेवाले है और विपक्ष चाहता है, कि इस दौरान राम जन्मभूमि मामले की सुनवाई न हो। कपिल सिब्बल जैसे नेता तो भरी कोर्ट में कह चुके है, कि सन 2019 तक इस मामले को टाला जाएं। गलती से भी इस मामले का फैसला हिंदूओं के हक में हुआ, तो इसका फायदा भाजपा को होगा इसी ड़र से सभी सेकुलर पार्टियां सहमी हुई है।
स्पष्ट है, कि वे किसी भी तरह न्या. मिश्रा को इस मामले में आगे बढ़ने से रोकना चाहती है। महाभियोग का पैंतरा बस इसी भयतंत्र का एक हिस्सा है। बार काउंसिल के कुछ सदस्यों की कांग्रेसधर्मिता छिपी हुई नहीं है। सीजेआई मिश्रा अगर उनके इशारों पर चलने के लिए हामी भर देते, तो उन पर महाभियोग नहीं चलाया जाता। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने सरकारविरोधी रूख में एक सहभागी बनने हेतु सीजेआई को धमकाने के लिए संसद की उस शक्ति का दुरुपयोग किया जा रहा है जिसके तहत गलतियां करनेवाले न्यायाधीशों को सज़ा दी जाती है। उम्मीद है कि सीजेआई मिश्रा अपनी भूमिका पर कायम रहेंगे और इस तरह के ब्लैकमेल के आगे नहीं झुकेंगे।