Friday, March 9, 2018

आखिर चंद्राबाबू की मंशा क्या है?

narendra modi Chandrababu Naiduसरकार से निकलते हुए भी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में बने रहने की घोषणा करते हुए आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्राबाबू नायडू ने कहानी में ट्वीस्ट लाया है। भारतीय जनता पार्टी की एक दिशा में बढ़ती हुई यात्रा में उन्होंने एक मोड़ लाया है।


यह सर्वविदीत है, कि पिछले कई दिनों से भाजपा और तेलुगू देशम के बीच रिश्तों में खटास आई थी। एनडीए से बाहर निकलने की चंद्राबाबू गाहे-बगाहे कई बार घोषणा कर चुके थे। जनवरी में उन्होंने कहा था, ‘गठबंधन धर्म के कारण हम चुप हैं। यदि वे हमें नहीं चाहते तो हम नमस्कारम कह देंगे और अपनी राह पर निकल पड़ेंगे।’लेकिन उस पर पहल अभी तक नहीं हुई थी। बुधवार की रात 10 बजे के बाद उस पर अधिकारिक मुहर भी लग गई।


“मैंने इस मुद्दे पर केंद्र सरकार से 29 बार मुलाकात की लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया। जिस तरह से वे बात कर रहे हैं और कह रहे है, कि ‘हम इतना ही दे सकते है’ वह राज्य का अपमान है,” नायडू ने ताजा संवाददाता सम्मेलन में कहा।


हालांकि यह एक रटरटाया बयान है जिसका अभ्यास उनकी पार्टी वर्षों से कर रही है। तेलुगू आत्म-सम्मान का नारा तेदेपा के लिए एक सुपरीक्षित अस्त्र है जिसका प्रयोग कई बार किया गया है और वह भी सफलता के साथ। आखिर वह दिल्ली द्वारा आंध्र का अपमान किए जाने की दुहाई ही तो थी, जिसे देकर एन. टी. रामाराव हैद्राबाद की सत्ता पर आसीन हुए थे। इसी आघोष के साथ उन्होंने तेदेपा को जन्म दिया और सत्ता भी प्राप्त की। आज उसी जुमले को उछालकर चंद्राबाबू ने 1982-83 के चरित्र को दुहराने की कोशिश की है। फर्क इतना है, कि तब सत्ता में कांग्रेस थी और आज भाजपा है।


आंध्र प्रदेश और केंद्र के बीच विवाद का केवल एक कारण है और वह है एक शब्द : विशेष। इसका कारण है, कि आंध्र प्रदेश का विभाजन कर तेलंगाना बनाते समय लोकसभा में बहस के दौरान तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी, कि नए आंध्र को वित्तीय समस्या के उबरने के लिए विशेष श्रेणी का दर्जा (एससीएस) दिया जाएगा। मनमोहन सिंह ने यह घोषणा 5 वर्षों के लिए की थी, जबकि भाजपा ने सत्ता पाने की जद्दोजहद में 2014 में यह विशेष दर्जा एक दशक तक देने का वादा किया था। भाजपा के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ने वाले तेलुगु देसम के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात क्या हो सकती थी?


मगर आंध्र प्रदेश को विशिष्ट राज्य का दर्जा देने में मोदी मदद करेंगे, इसकी उम्मीद लगाए बैठे चंद्राबाबू के हाथ निराशा ही लगी थी। दोनों दलों के बीच अंतर इतना बढ़ गया, कि आखिर नायडू ने कहा, कि वे अपमानित महसूस कर रहे है।


आज एससीएस की स्थिति यह है, कि राजकीय क्षितिज पर उसकी दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है। भाजपा ने आंध्र को विशेष राज्य तो दूर, आम राज्यों की कतार में एक और राज्य से अधिक कुछ नहीं बनाया है। इसके लिए केंद्र ने 14 वें वित्त आयोग की सिफारिश को ढाल बनाया है जिसने एससीएस के खिलाफ सिफारिश की है। इसलिए विशेष वर्ग के नाम को छोड़कर उसके तहत मिलनेवाले सभी वित्तीय लाभ देने की बात केंद्र ने की है। इसका मतलब यह है, कि केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं का 90 प्रतिशत केंद्र द्वारा दिया जाएगा और राज्य द्वारा 10 प्रतिशत। आम तौर पर कुछ परियोजनाओं के खर्च का 60 प्रतिशत हिस्सा केंद्र द्वारा और 40 प्रतिशत राज्य द्वारा दिया जाता है।


केंद्र की इस पेशकश को चंद्राबाबू ने हामी भरी थी, क्योंकि इसके अलावा उनके पास कोई चारा भी नहीं था। वास्तविकता यह है, कि चंद्राबाबू मोदी से ऐसा कुछ उगलवा नहीं पा रहे थे जैसा 1998-2004 के दौरान वे अटलबिहारी वाजपेयी से उगलवाते थे।


अब सवाल यह है, कि क्या तेदेपा का सरकार से बाहर निकलने से आंध्र का कुछ भला होगा? इसका उत्तर है, नहीं। खासकर तब अगर भाजपा 2019 में सत्ता में लौट आ जाए। दूसरी तरफ भाजपा और वाईएसआर कांग्रेस नेता जगनमोहन रेड्डी के बीच भी नजदीकियां बढ़ रही है। इसके कारण भी तेदेपा की भौंहें तन गई है। जगनमोहन रेड्डी की पिछले दिनों भाजपा के वरिष्ठ नेताओं से मुलाकात ने इस बात को बल ही दिया है। जगनमोहन ने पहले भी कहा था और अब भी कहते है, कि अगर भाजपा आंध्र प्रदेश को विशेष दर्जा देती है तो वो उसका समर्थन करेंगे। इसी बीच केंद्रीय जांच एजेंसियों के कई केस जगन पर चल रहे हैं। इन पचड़ों से खुद को बचाए रखने के लिए जगन भाजपा से हाथ मिलान चाहते हैं।


इसलिए भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोलकर चंद्राबाबू शहीद बनना चाहते है। यह चंद्राबाबू का एक हथकंडा है जो एक तरह से भाजपा के खिलाफ नूरा कुश्ती है। राज्य में अपनी साख बचाने के लिए खेली गई यह चाल है। भाजपा को खलनायक बनाकर वे नायक बनना चाहते है जिससे आंध्र की सत्ता में उनका पुनरागमन सुकर हो। ऐसा हुआ, तो भाजपा और तेदेपा फिर से एक थाली में खाते हुए दिख सकते है।

Wednesday, March 7, 2018

लेनिन लगता कौन है आपका? बाप? दोस्त या मालिक?

यूरोपीय संसद की सदस्या सँड्रा कैल्निएट (Sandra Kalniete) की एक पुस्तक है साँग टू किल ए जायंट। इस पुस्तक में सँड्रा ने तत्कालीन सोवियत शासन के खिलाफ उनके देश लाटविया के स्वतंत्रता आंदोलन का वर्णन किया है। इस पूरी पुस्तक में भारत (इंडिया) का एक उल्लेख केवल एक बार आया है जब दमनकारी शासन के विरोध में एक युवा विद्रोही कार्यकर्ता के तौर पर सँड्रा को सज़ा के तौर पर वहां भेजा जाता है। उस समय के सोवियत दूतावास का वर्णन सँड्रा ने कुछ इस तरह किया है, “वहां का माजरा देखकर मैं हैरान रह गई। वहां हर सोवियत अधिकारी स्थानीय लोगों के साथ ऐसे बर्ताव कर रहा था जैसे वह मालिक हो और स्थानीय लोग गुलाम। मेरे लिए यह एक सांस्कृतिक सदमा था।”


यह उस लेखिका ने लिखा है जो एक शोषणकारी और अत्याचारी शासन के खिलाफ आंदोलन कर रही थी। उस शोषणकारी और अत्याचारी शासन में भी गुलामी का जो भाव उसे नहीं दिखा, वह उसे नई दिल्ली के सोवियत दूतावास में दिखा। यह प्रसंग बताने के लिए काफी है, कि तत्कालीन सोवियत शासकों का भारत के प्रति रवैय्या कैसा था।


इस वाकये का संस्मरण होने का कारण था व्लादिमिर लेनिन की मूर्ति का उखाडना। त्रिपुरा में भारतीय जनता पक्ष की विजय के बाद हवा बदलने लगी है। उसी के चलते दक्षिण त्रिपुरा जिले के बेलोनिया में कम्युनिस्ट नेता व्लादिमिर लेनिन की एक प्रतिमा जेसीबी मशीन का इस्तेमाल कर गिरा दी गई। कुछ ही महिनों पहले पहले पार्टी पोलित ब्यूरो सदस्य प्रकाश करात ने इस प्रतिमा का अनावरण किया था। इस घटना को लेकर मार्क्सवादी खेमे में बौखलाहट स्वाभाविक है, लेकिन समस्त लिबरल कैंप में इसको लेकर बेचैनी है। लेनिक के रूस ने किस तरह भारत की मदद की, लेनिन कितना महान आदी चीजों की दुहाई दी जा रही है। हालांकि यह स्पष्ट हो नहीं पा रहा है, कि ये लोग बेचैन किस बात से है – मूर्ति गिराने को लेकर या प्रतिमा को गिराये जाने के बाद भारत माता की जय के नारे भी लगाने को लेकर?


जिस त्रिपुरा में लेनिन और स्टालिन की जयंती मनाई जाती हो, लेकिन रबीन्द्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद और महाराजा वीर विक्रम देव की जयंती कभी नहीं मनाई जाती थी वहां भारत माता की जय के नारे लगना अपने आप में एक कयामत है। इससे लिबरलों के मन में कसमसाहट के गुबार उठना जायज ही नहीं, स्वाभाविक भी है। ये वही लोग है जो वीर सावरकर की काव्य पंक्तियां जब अंदमान के सेल्युलर जेल से हटाई गई तो खुशी से चहक उठे थे। ये वही लोग है जिनकी आंखे त्रिपुरा और केरल में मार्क्सवादी गुंड़ों के हाथों मारे गए लोगों के लिए आंसू बहाना हराम समझती है। इनके लिए 80 साल पहले मर चुके एक निर्दय हत्यारे की स्मृति अधिक महत्वपूर्ण है बनिस्बत उनके जो तुम्हारी-हमारी तरह जीते-जागते इन्सान है। हाल ही में केरल में एक 30 वर्षीय कांग्रेस कार्यकर्ता शोएब की हत्या की गई और उसके परिवारवालों का कहना है, कि माकपा के हत्यारों ने इसे अंजाम दिया है। लेकिन उनके लिए यह कोई विषय ही नहीं है।


आखिर लेनिन कौन था? भारतीयों से उसका संबंध क्या था?



सोवियत रूस में 72 वर्षों तक लेनिन की पूजा की गई, यहां तक की उसका शव भी नहीं दफनाया गया। मास्को में एक भव्य मकबरे में कांच के विशाल बक्से के भीतर लेनिन का शव आज भी सुरक्षित है। हर जगह उसकी मूर्तियां स्थापित की गई। लेकिन मार्क्सवाद या लेनिनवाद एक अप्राकृतिक कल्पना थी, जिसका ढहना तय था। धर्म को अफीम, अध्यात्म को अंधविश्वास और आस्था को मूर्खता कहनेवाले स्वघोषित विचारकों की पराकोटी की व्यक्ति पूजा नहीं तो और क्या है? लेनिन का शासनकाल था सन 1918 से 1924 तक. इसी को रेड टेरर (लाल आतंक) के रूप में जाना जाता है। सितंबर 1918 में याकॉव स्वेरडलोव द्वारा अधिकारिक रूप से इसकी घोषणा की गई थी। चेका (बोल्शेविक गुप्त पुलिस) ने लाल आतंक के दमन को अंजाम दिया था। इस दौरान लगभग 100,000 हत्याएं होने का अनुमान है जबकि मारे जानेवालों की कुल संख्या 200,000 मानी गई है।


सोवियत संघ के विघटन के बाद खुद रूसी लेखकों ने लेनिन के यौन पिपासु, विश्वासघाती और बर्बर अत्याचारों का जो कच्चा चिट्ठा खोला है। वह एक महान सेनानी, दूरदर्शी नेता और समानता का दूत कतई नज़र नहीं आता, जैसा कि हमारे वामपंथी उसे दिखाना चाहते है। रूसी रिकार्ड उसे वही बताते है जो वह था – निर्मम शासक, अत्याचारी और एक धूर्त राजनेता। यही तो वजह है, कि खुद रूस की नई पीढ़ी उसे अपनाना नहीं चाहती। सोवियत तंत्र के ढ़हने के बाद सबसे पहले किस चीज को ढहाया गया? अर्थात् लेनिन की मूर्ति को!


यह शर्म की बात है, कि जिस लेनिन को उसके अपने देशवासियों ने नकारा है उसी के भक्त हमारे यहां पैदा हो गए है। लेनिन-भक्ति रूस में मर गई लेकिन भारत में जिंदा है। क्या लेनिन इनका पिता है? कौन सी विचारधारा का पितृत्व लेनिन के पास जाता है? क्या लेनिन इनका दोस्त है? लेनिन के काल में दोस्ती की कौन सी मिसाल पेश हुई, यह भी तो बताएं। इस लिहाज से इनका पूरा खाता खाली है।


हां, यह हो सकता है, कि लेनिन इनका मालिक है। कम्युनिस्ट हमेशा पहले रूस और अब चीन के कदमताल पर चलने के लिए जाने जाते है। इनकी इसी रूसधर्मिता के कारण जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस स्वतंत्रता की लढ़ाई लढ़ रहे थे, तब कम्युनिस्ट पत्रिकाएं उन्हें टोजो (जापान के सेनानी) का कुत्ता कह रहे थे।


और यही कम्युनिस्ट (सेकुलर, लिबरल आदी सबको मिलाकर) जब भगतसिंग की दुहाई देकर लेनिन का महीमा मंडन करते है तो और आश्चर्य होता है। लेनिन के अत्याचारों का पुलिंदा तो काफी बाद में खुला, इसलिए भगतसिंग को उसकी जानकारी होने का सवाल ही नहीं। तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में रूस की क्रांति से सभी क्रांतिकारी प्रभावित हुए थे, इसमें दो राय नहीं है। अगर भगतसिंग जिंदा रहते और उन्हें लेनिन (और स्टैलिन) की सच्चाई पता चलती तो वे भी उनसे मुंह मोडते। अपनी फांसी से पहले भगतसिंग ने शायद लेनिन की जीवनी पढ़ी भी हो, लेकिन क्या यह बात झूठी है, कि भगतसिंग को सज़ा जिस हत्या के लिए हुई थी, वह एक आर्य समाजी (लाला लजपत राय) का बदला लेने के लिए की गई थी।


भगतसिंग भारतीय थे, लिबरलों, जो तुम नहीं हो।