Wednesday, March 7, 2018

लेनिन लगता कौन है आपका? बाप? दोस्त या मालिक?

यूरोपीय संसद की सदस्या सँड्रा कैल्निएट (Sandra Kalniete) की एक पुस्तक है साँग टू किल ए जायंट। इस पुस्तक में सँड्रा ने तत्कालीन सोवियत शासन के खिलाफ उनके देश लाटविया के स्वतंत्रता आंदोलन का वर्णन किया है। इस पूरी पुस्तक में भारत (इंडिया) का एक उल्लेख केवल एक बार आया है जब दमनकारी शासन के विरोध में एक युवा विद्रोही कार्यकर्ता के तौर पर सँड्रा को सज़ा के तौर पर वहां भेजा जाता है। उस समय के सोवियत दूतावास का वर्णन सँड्रा ने कुछ इस तरह किया है, “वहां का माजरा देखकर मैं हैरान रह गई। वहां हर सोवियत अधिकारी स्थानीय लोगों के साथ ऐसे बर्ताव कर रहा था जैसे वह मालिक हो और स्थानीय लोग गुलाम। मेरे लिए यह एक सांस्कृतिक सदमा था।”


यह उस लेखिका ने लिखा है जो एक शोषणकारी और अत्याचारी शासन के खिलाफ आंदोलन कर रही थी। उस शोषणकारी और अत्याचारी शासन में भी गुलामी का जो भाव उसे नहीं दिखा, वह उसे नई दिल्ली के सोवियत दूतावास में दिखा। यह प्रसंग बताने के लिए काफी है, कि तत्कालीन सोवियत शासकों का भारत के प्रति रवैय्या कैसा था।


इस वाकये का संस्मरण होने का कारण था व्लादिमिर लेनिन की मूर्ति का उखाडना। त्रिपुरा में भारतीय जनता पक्ष की विजय के बाद हवा बदलने लगी है। उसी के चलते दक्षिण त्रिपुरा जिले के बेलोनिया में कम्युनिस्ट नेता व्लादिमिर लेनिन की एक प्रतिमा जेसीबी मशीन का इस्तेमाल कर गिरा दी गई। कुछ ही महिनों पहले पहले पार्टी पोलित ब्यूरो सदस्य प्रकाश करात ने इस प्रतिमा का अनावरण किया था। इस घटना को लेकर मार्क्सवादी खेमे में बौखलाहट स्वाभाविक है, लेकिन समस्त लिबरल कैंप में इसको लेकर बेचैनी है। लेनिक के रूस ने किस तरह भारत की मदद की, लेनिन कितना महान आदी चीजों की दुहाई दी जा रही है। हालांकि यह स्पष्ट हो नहीं पा रहा है, कि ये लोग बेचैन किस बात से है – मूर्ति गिराने को लेकर या प्रतिमा को गिराये जाने के बाद भारत माता की जय के नारे भी लगाने को लेकर?


जिस त्रिपुरा में लेनिन और स्टालिन की जयंती मनाई जाती हो, लेकिन रबीन्द्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद और महाराजा वीर विक्रम देव की जयंती कभी नहीं मनाई जाती थी वहां भारत माता की जय के नारे लगना अपने आप में एक कयामत है। इससे लिबरलों के मन में कसमसाहट के गुबार उठना जायज ही नहीं, स्वाभाविक भी है। ये वही लोग है जो वीर सावरकर की काव्य पंक्तियां जब अंदमान के सेल्युलर जेल से हटाई गई तो खुशी से चहक उठे थे। ये वही लोग है जिनकी आंखे त्रिपुरा और केरल में मार्क्सवादी गुंड़ों के हाथों मारे गए लोगों के लिए आंसू बहाना हराम समझती है। इनके लिए 80 साल पहले मर चुके एक निर्दय हत्यारे की स्मृति अधिक महत्वपूर्ण है बनिस्बत उनके जो तुम्हारी-हमारी तरह जीते-जागते इन्सान है। हाल ही में केरल में एक 30 वर्षीय कांग्रेस कार्यकर्ता शोएब की हत्या की गई और उसके परिवारवालों का कहना है, कि माकपा के हत्यारों ने इसे अंजाम दिया है। लेकिन उनके लिए यह कोई विषय ही नहीं है।


आखिर लेनिन कौन था? भारतीयों से उसका संबंध क्या था?



सोवियत रूस में 72 वर्षों तक लेनिन की पूजा की गई, यहां तक की उसका शव भी नहीं दफनाया गया। मास्को में एक भव्य मकबरे में कांच के विशाल बक्से के भीतर लेनिन का शव आज भी सुरक्षित है। हर जगह उसकी मूर्तियां स्थापित की गई। लेकिन मार्क्सवाद या लेनिनवाद एक अप्राकृतिक कल्पना थी, जिसका ढहना तय था। धर्म को अफीम, अध्यात्म को अंधविश्वास और आस्था को मूर्खता कहनेवाले स्वघोषित विचारकों की पराकोटी की व्यक्ति पूजा नहीं तो और क्या है? लेनिन का शासनकाल था सन 1918 से 1924 तक. इसी को रेड टेरर (लाल आतंक) के रूप में जाना जाता है। सितंबर 1918 में याकॉव स्वेरडलोव द्वारा अधिकारिक रूप से इसकी घोषणा की गई थी। चेका (बोल्शेविक गुप्त पुलिस) ने लाल आतंक के दमन को अंजाम दिया था। इस दौरान लगभग 100,000 हत्याएं होने का अनुमान है जबकि मारे जानेवालों की कुल संख्या 200,000 मानी गई है।


सोवियत संघ के विघटन के बाद खुद रूसी लेखकों ने लेनिन के यौन पिपासु, विश्वासघाती और बर्बर अत्याचारों का जो कच्चा चिट्ठा खोला है। वह एक महान सेनानी, दूरदर्शी नेता और समानता का दूत कतई नज़र नहीं आता, जैसा कि हमारे वामपंथी उसे दिखाना चाहते है। रूसी रिकार्ड उसे वही बताते है जो वह था – निर्मम शासक, अत्याचारी और एक धूर्त राजनेता। यही तो वजह है, कि खुद रूस की नई पीढ़ी उसे अपनाना नहीं चाहती। सोवियत तंत्र के ढ़हने के बाद सबसे पहले किस चीज को ढहाया गया? अर्थात् लेनिन की मूर्ति को!


यह शर्म की बात है, कि जिस लेनिन को उसके अपने देशवासियों ने नकारा है उसी के भक्त हमारे यहां पैदा हो गए है। लेनिन-भक्ति रूस में मर गई लेकिन भारत में जिंदा है। क्या लेनिन इनका पिता है? कौन सी विचारधारा का पितृत्व लेनिन के पास जाता है? क्या लेनिन इनका दोस्त है? लेनिन के काल में दोस्ती की कौन सी मिसाल पेश हुई, यह भी तो बताएं। इस लिहाज से इनका पूरा खाता खाली है।


हां, यह हो सकता है, कि लेनिन इनका मालिक है। कम्युनिस्ट हमेशा पहले रूस और अब चीन के कदमताल पर चलने के लिए जाने जाते है। इनकी इसी रूसधर्मिता के कारण जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस स्वतंत्रता की लढ़ाई लढ़ रहे थे, तब कम्युनिस्ट पत्रिकाएं उन्हें टोजो (जापान के सेनानी) का कुत्ता कह रहे थे।


और यही कम्युनिस्ट (सेकुलर, लिबरल आदी सबको मिलाकर) जब भगतसिंग की दुहाई देकर लेनिन का महीमा मंडन करते है तो और आश्चर्य होता है। लेनिन के अत्याचारों का पुलिंदा तो काफी बाद में खुला, इसलिए भगतसिंग को उसकी जानकारी होने का सवाल ही नहीं। तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में रूस की क्रांति से सभी क्रांतिकारी प्रभावित हुए थे, इसमें दो राय नहीं है। अगर भगतसिंग जिंदा रहते और उन्हें लेनिन (और स्टैलिन) की सच्चाई पता चलती तो वे भी उनसे मुंह मोडते। अपनी फांसी से पहले भगतसिंग ने शायद लेनिन की जीवनी पढ़ी भी हो, लेकिन क्या यह बात झूठी है, कि भगतसिंग को सज़ा जिस हत्या के लिए हुई थी, वह एक आर्य समाजी (लाला लजपत राय) का बदला लेने के लिए की गई थी।


भगतसिंग भारतीय थे, लिबरलों, जो तुम नहीं हो।

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