कर्नाटक के नाट्य के पहले अंक का पटाक्षेप भाजपा को मिले हुए झटके से हुआ है। सत्ता सोपान के सबसे उंचे पायदान से उसे नीचे उतरना पड़ा है और वह भी बड़े बेआबरू होकर - सिर्फ आठ विधायक न मिलने की वजह से। कईयों का कहना है, बल्कि अधिकांश लोगों का कहना है, कि भाजपा को अव्वल तो सरकार गठन का दावा ही नहीं करना चाहिए था। लेकिन वह किया गया। कांग्रेस और जेडी (एस) के कुछ विधायकों को खरीदने का उसका इरादा काम नहीं आया - राजनीति में सफलता केवल इरादे और हौसलों से नहीं मिलती। भाग्य का साथ भी चाहिए। इस बार भाग्य डी. के. शिवकुमार नामक नेता के रूप में आड़े आया। कर्नाटक में त्रिशंकु विधानसभा के नतीजे आने के बाद से ही कांग्रेस ने शिवकुमार को कांग्रेसी विधायकों को एक साथ रखने की जिम्मेदारी सौंप दी थी। बेंगलुरु के ईगलटन रिसॉर्ट से लेकर हैदराबाद तक और फिर वहां से विधानसभा तक कांग्रेसी विधायकों को पहुंचाने की जिम्मेदारी को शिवकुमार ने सफाई से अंजाम दिया। यहां तक कि जब ईगलटन रिसॉर्ट में पुलिस हटा ली गयी तब भी शिवकुमार ने कहा कि कांग्रेस के विधायकों की सुरक्षा पर कोई खतरा नहीं है।
भाजपा शायद अपने मनचाहे विधायकों को पटा भी लेती, अगर मंत्रि पद और धन का टोटका चला लेने के लिए वे उपलब्ध रहते। लेकिन कांग्रेस और जेडी (एस) ने उन्हें इस तरह बंदी बना लिया था, कि भाजपा का संदेश उन तक पहुंच ही नहीं पाया। उन्होंने अपने विधायकों को बंद कर दिया था और उनके मोबाइल फोन तक जब्त कर लिए थे।
भाजपा के लिए वज्राघात तो उसी समय हो गया था जब उच्चतम न्यायालय ने बहुमत की परीक्षा के लिए अवधि 15 दिनों से घटाकर केवल 24 घंटे तक कर दिया था। अमित शाह की चर्चित और अप्रत्याशित चालें चलने के लिए भाजपा को मौका ही नहीं मिला। जब यह साफ हो गया, कि पार्टी बहुमत से दूर है और अंतिम रेखा को छून की ताकत उसमें नहीं है, तब बी. एस. येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद का इस्तीफा दे दिया। हालांकि उससे पहले उन्होंने विधानसभा में भावनात्मक भाषण देकर अपना पक्ष भी रखा। उस भाषण को सुनने के बाद लगा, कि विधानसभा के लिए प्रचार चुनाव के साथ समाप्त नहीं हुआ बल्कि वह सभागार में पहुंच गया है।
इस अंक की समाप्ति के बाद नाटक का दूसरा अंक शुरू हुआ है। राज्यपाल वजुभाई वाला ने जेडी (एस)-कांग्रेस गठबंधन के नेता एच. डी. कुमारस्वामी को आमंत्रित करने में कोई समय नहीं गंवाया। अब नई सरकार बुधवार को शपथ ग्रहण करेगी। और अब कर्नाटक की जनता के होठों पर एक ही सवाल है - यह सरकार कितने दिन चलेगी?
इस सरकार के अंतर्विरोध किसी से छुपे नहीं है। दोनों दलों ने न सिर्फ एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा, बल्कि पूरी कड़वाहट के साथ लढ़ा। ऐसे में इन दोनों का एकत्र आना एक विडंबना से कम नहीं है। किसी तिसरे को रोकने के लिए दोनों दलों ने भले ही एक दूसरे के गले लगाया है, लेकिन उनकी हाथों में वे छुरे अभी भी कायम है जो उन्होंने चुनाव के दौरान एक दूसरे पर चलाए थे। उस पर तुर्रा यह, कि मुख्यमंत्री के अपने सदस्य उसे समर्थन देनेवाले दल से आधे से भी कम है। भाजपा को किसी भी तरह से सत्ता तक पहुंचने से रोकने के लिए कांग्रेस ने बहुत ही सस्ते में खुद का सौदा किया है।
खुद को गैर-सांप्रदायिक कहलानेवालों का उम्मीदभरा अनुमान यह है, कि भाजपा के डर के चलते ये कांग्रेस और जेडीएस लंबी अवधि तक गृहस्थी चला सकेंगे। ऐसे लोगों को कुमारस्वामी का इतिहास या तो पता नहीं या वे उससे आंखे मूंद लेना चाहते है। कुमारस्वामी और देवेगौड़ा भारत के उन राजनीतिक चरित्रों में से है जिनकी गिनती नितांत अवसरवादियों में की जा सकती है। कुमारस्वामी को किसी विचारधारा से लेना देना नहीं है। कांग्रेस के सहारे सत्ता के शिखर पर पहुंचने के बाद वे अगर कांग्रेस के असहज महसूस करने लगे तो पाला बदलकर भाजपा के साथ भी आ सकते है। ऐसे में भाजपा भी उन्हें समर्थन देने से नहीं कतराएगी क्योंकि जो खेल कांग्रेस ने खेला क्या वह भाजपा नहीं खेल सकती? कर्नाटक के खजाने से भाजपा को दूर रखने के लिए अगर कांग्रेस जेडीएस के सामने गिडगिडा सकती है तो क्या भाजपा जेडीएस को सहारा नहीं दे सकती?
इसके साथ ही यह उम्मीद करना, कि विरोधी भाजपा, जिसके सदस्य लगभग इन दोनों दलों के कुल सदस्यों जितने है, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेगी। यह वह भाजपा है जिसके मूंह सत्ता का खून लग चुका है। कश्मीर से लेकर कर्नाटक तक वह हर जगह अपना झंडा गाड़ने की ताक में रहती है। जिस पार्टी के पास रेड्डी भाईयों से विधायकों के शिकारी हो, उसके लिए आंकडों का इंतजाम महज़ समय का सवाल है।
और कांग्रेस का यह चरित्र रहा है, कि जिस दल को उससे समर्थन मिला है उसकी सरकार कभी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। इसका सबसे प्रखर उदाहरण तो कुमारस्वामी के पिता देवेगौड़ा ही है जिन्हें कर्नाटक से उठाकर प्रधानमंत्री बनाया गया था और एक वर्ष के भीतर सत्ताविहीन किया गया था।
तो इसमें क्या शक, कि कांग्रेस जैसे बेवफा सहयोगी और भाजपा जैसे सत्ताकांक्षी विरोधी के चलते कुमारस्वामी सरकार एक पल के लिए भी स्थिर महसूस नहीं करेगी। हां, इतना जरूर है, कि भाजपा के विजय अभियान से हताशाग्रस्त और विरोधियों की एका का सपना बुननेवाले लिबरलों के लिए यह कुछ समय के लिए जरूर उम्मीद पैदा करेगी।
No comments:
Post a Comment