रूस के चुनावों में अभूतपूर्व जीत हासिल कर व्लादिमीर पुतिन ने फिर से अपने नेतृत्व का लोहा मनवा लिया है। सारी दुनिया के जनमत के ठेकेदारों के गाल पर यह एक और जोरदार तमाचा है। अगर 2018 के रूसी चुनाव का नतीजा कुछ साबित करता है तो वह यह, कि कलमघिस्सुओं के मतों में और प्रत्यक्ष जनता में एक जोरदार खाई बन चुकी है जिसे पाटना अब नामुमकिन लगता है।
ठेकेदारों को अब तो मान लेना चाहिए, कि पुतिन की लोकप्रियता असली और प्रामाणिक है। पश्चिमी देशों और खासकर लिबरल कैम्प से इन चुनावों को कलंकित करने की चाहे जितनी भी कोशिश की गई हो, लेकिन इसको नकारना की यह लोगों की इच्छा है अपने आप को धोखा देना है।
दुनिया में कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था सही नहीं है, न रूस की, न ब्रिटेन की और न ही अमेरिका की। खासकर सन 2000 में जिस तरह जॉर्ज बुश ज्यू. विवादित पद्धति से चुनकर आए थे और जिस तरह पिछले एक वर्ष से मीडिया पंडित अपने ही अध्यक्ष पर संदेह व्यक्त कर रहे है, उसे देखते हुए तो यह कथन और भी वास्तव लगने लगता है।
पुतिन ने सन 2012 में 63.6% मत हासिल किए थे जबकि उस समय 65.25% मतदान हुआ था। इस बार 76.68% मतदान हुआ था जिसमें से पुतिन को 67.68% से अधिक मत मिलें। अपने लोगों पर पुतिन की इस हुकूमत को पश्चिमी परामर्शदाता पचा नहीं पाते। इनमें से कईयों ने तो उनकी तुलना तानाशाह जोसेफ स्टालिन से तक की है। भारत में भी कई पश्चिम-आधारित लेखकों ने इसी लकीर को आगे खिंचते हुए पुतिन की निंदा करने में कोई कोताही नहीं बरती।
वास्तव में पश्चिमी देशों को पेटदर्द होने का कारण यह है, कि सोवियत रूस के पतन के बाद उन्हें लगने लगा था कि रूस अब समाप्त हो गया। सन 1990 के दशक के दौरान रूस ने मुक्त बाजार प्रणाली अपनाई। उस प्रयोग में पटरी पर आने और सोवियत युग की अपनी ताकत को पुनः पाने के लिए रूस को कई दशक लगेंगे, ऐसी प्रत्याशा थी। हालांकि रूस ने बड़ी ही तेजी से अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त की। इस रिकवरी के लिए काफी हद तक जिम्मेदार व्यक्ति था व्लादिमीर पुतिन जिसने राष्ट्रवाद, व्यावहारिकता और प्रागतिकता के मार्ग पर चलते हुए राष्ट्र का गौरव लौटाया। परिणाम यह है, कि लोकप्रियता में पुतिन की बराबरी कोई नहीं कर सकता।
यहां याद रखना होगा, कि पुतिन के क्रेमलिन में आने से पहले रूस सामाजिक रूप से तितर-बितर हो गया था। करोड़ों लोग आर्थिक बिभिषिका से गुजर रहे थे। जबकि कुलीन वर्गों के कुछ लोग और उनके गुर्गे देश की संपत्ति लूटने में व्यस्त थे। अमेरिकी विद्वान और प्रसिद्ध रूस विशेषज्ञ स्टीफन एफ कोहेन ने इस स्थिति का वर्णन "शांतिपूर्ण समय में किसी प्रमुख राष्ट्र पर आई हुई सबसे खराब आर्थिक और सामाजिक विपत्ति" के रूप में किया था।
पुतिन ने न केवल यह लूट रोकी बल्कि पश्चिमी देशों की आंखों में आंख ड़ालने का माद्दा भी रूसी लोगों में तैयार किया। आज आलम यह है, कि अमेरिकीयों को यह डर लगता है, कि अमेरिकी अध्यक्ष भी रूस (या कहें पुतिन) चुनवाकर ला सकता है।
अतः यह समझना मुश्किल नहीं है, कि रूस में पुतिन की लोकप्रियता इतनी क्यों चढ़ती है। साथ ही पश्चिमी पत्रकारों, लेखकों और कार्यकर्ताओं में उनको लेकर इतनी घृणा क्यों है, यह समझना भी मुश्किल नहीं है। क्योंकि उनके नेतृत्व में रूस अपने पश्चिमी समकक्षों की तुलना में एक निम्न संस्कृति और निम्न शक्ति के रूप में जीने के लिए तैयार नहीं है।
भारत में नरेंद्र मोदी, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप और अब रूस में व्लादिमीर पुतिन। इन तीनों नेताओं में एक समानता यह है, कि मीडिया और विचारक कहे जानेवाले वर्ग का इन्हें कभी समर्थन नहीं मिला। लेकिन अपने लोगों पर पकड़ इन लोगों ने बार-बार साबित की है। ये अलग बात है, कि उनकी इस उपलब्धि को खुले दिल से दाद देने की दरियादिली भी वे नहीं दिखा सके है। यह ऐसा ही है, जैसे कोई व्यक्ति अंधेरे कमरे में बैठा हो और रोशनी को नकारे।
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