कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी अपना वजूद बचाने के लिए ऐसे हाथ पर मार रही है जैसे कोई डूबनेवाला व्यक्ति पानी में मारता है। जब से नरेंद्र मोदी ने केंद्र में कमान संभाली है तबसे कांग्रेस के हाथ से एक के बाद एक राज्य फिसल चुके हैं और वह अच्छी तरह से जानती है, कि यह इकलौता बड़ा राज्य उसके पास बचा है। अब कि जब इस राज्य के विधानसभा चुनाव दस्तक दे रहे हैं तो विभिन्न गुटों की लामबंदी करने में मुख्यमंत्री सिद्दरामय्या कोई कसर नहीं छोड़ रहे है। उन्होंने इंदिरा कैंटीन जैसी योजनाओं के द्वारा गरीबों को अपनी ओर खींचने की कोशिश की। उसके बाद झंडे और धर्म के बहाने वोट बैंक बनाने की कोशिश की।
आज कर्नाटक में सिद्दरामय्या वही खेल खेल रहे है जो तमिलनाडु में कभी द्रविड़ पार्टियां खेला करती थी। वह राज्य के लोगों में दूसरे राज्यों के लोगों के लिए असंतोष पैदा कर रहे हैं जिसके लिए खासकर उत्तर भारतीय राज्यों को निशाना बनाया जा रहा है। इसकी शुरुआत मेट्रो रेलवे में हिंदी को थोपने के बहाने हुई। उसके बाद राज्य के अलग झंडे के नाम पर अलगाववाद पैदा किया गया। इन दोनों में मामलों में परिदृश्य ऐसे बनाया गया मानो केंद्र और राज्य सरकार आमने सामने आए हो। उसके बाद झंडे के नाम सनसनी बनाई गई और कन्नडभाषियों की भावनाओं को प्रज्वलित करने की कोशिश की गई।
कर्नाटक का अपना एक लाल और पीले रंग का ध्वज है लेकिन उसे आधिकारिक मान्यता नहीं है। राज्य में तमाम बड़े जनआयोजनों में इस झंडे का इस्तेमाल किया जाता है। इस झंडे को स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या अन्य सरकारी कार्यक्रमों में सरकार द्वारा नहीं फहराया जा सकता है। राज्य स्थापना दिवस जैसे अवसरों पर यह झंडा लहराया भी जाता है लेकिन उसे कानूनी मान्यता नहीं है। वैसे देश में जम्मू कश्मीर के अलावा अन्य किसी राज्य का अपना झंडा नहीं है।
सिद्धरामय्या यहीं पर नहीं रूके। उन्होंने लिंगायत पंथ को अलग धर्म के रूप में मान्यता देने की घोषणा की है। वीरशैव लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा देने की सिफारिश राज्य ने केंद्र के पास भेजी है। लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा देने से संबंधित नागमोहन दास कमेटी की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए कर्नाटक सरकार ने यह फैसला किया था। हालांकि इस आठ सदस्यीय समिति में एक भी लिंगायत व्यक्ति नहीं था।
राज्य मे लिंगायत समुदाय की जनसंख्या 17% है और यह वर्ग भारतीय जनता पार्टी का समर्थक माना जाता है। खासकर भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार बी. एस. येडियुरप्पा खुद लिंगायत है और इस समुदाय पर उनकी अच्छी खासी पकड़ है। विशेषकर उत्तरी कर्नाटक में भाजपा को इस समुदाय का समर्थन प्राप्त है।
सौभाग्य से किसी समुदाय विशेष को अलग धर्म का दर्जा देने के अधिकार राज्य के पास नहीं है। इसलिए मंजुरी के लिए यह प्रस्ताव केंद्र के पास भेजा गया है। इसमें खास बात यह है, कि पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने यही मांग सन 2013 में नकार दी थी। यह स्पष्ट है, कि कांग्रेस किसी भी कीमत पर कर्नाटक का किला फतह करना चाहती है और उसके लिए हिंदू मतो में विभाजन करना उसकी प्राथमिकता है। केंद्र अगर इस मांग को मंजूर करता है तो सिद्दरामय्या इसे अपनी जीत करार दे दे सकते हैं और अगर न करेंतो उसे भाजपा का लिंगायत विरोध बता सकते हैं। यानी चित भी मेरी और पट भी मेरी।
कर्नाटक में कांग्रेस शासन का रिकॉर्ड कुछ खास प्रभावित करने वाला नहीं है। इसलिए जनता की भावनाओं को भड़का कर मतों की रोटी सेंकने का प्रयास कांग्रेस कर रही है। क्या उनके ये प्रयास रंग लाएंगे और कांग्रेस को फिर से सत्ता में लौटायेंगे, यह तो वक्त ही बताएगा।
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