Thursday, April 12, 2018

मार्क ज़करबर्ग - पकड़ा गया वह चोर

अमेरिकी सीनेट की वाणिज्य और न्यायपालिका समितियों की संयुक्त सुनवाई से पहले  फेसबुक के संस्थापक मार्क  ज़करबर्ग ने करोड़ों उपयोगकर्ताओं से माफी मांग ली। इस युवा अरबपति के लिए निश्चय ही यह एक शर्मिंदगी का पल होगा। इस माफी के बाद फेसबुक के खून के लिए प्यासी कई आत्माओं को तत्कालिक शांति मिल गई होगी।


फेसबुक के संस्थापक ने अपने चिर परिचित परिधान टी-शर्ट और जीन्स का त्याग कर बिजनेस सूट को अपनाया इसी से उनकी गंभीरता का पता चल जाता है। यह केवल एक सतही बदलाव नहीं था, बल्कि यह एक मनोदशा और मानसिकता के बदलाव का चिन्ह भी था। जहां टी-शर्ट और जीन्स युवा ऊर्जा और उत्साह का प्रतीक है वहीं बिजनेस सूट गंभीरता और उत्तरदायीत्व का प्रतीक है। सुनवाई के समय यह परिधान कर ज़करबर्ग ने दिखा दिया, कि वे केवल इंटरनेट पर चलनेवाली किसी नवोन्मेषशाली वेबसाइट के खिलंदड़ मालिक नहीं है, बल्कि एक विश्वव्यापी साम्राज्य के मालिक है जो अपनी जिम्मेदारी भली-भांति समझता है।


ज़करबर्ग ने माना है कि कैंब्रिज एनालिटिका मामले में फेसबुक से हुई बड़ी गलती हुई है। ज़ुकरबर्ग ने एक लिखित बयान में कहा है कि वह निजी डाटा की गोपनीयता की सुरक्षा और इसके दुरूपयोग को रोकने में सोशल नेटवर्क की विफलता के लिए जिम्मदारी स्वीकार करते हैं। उन्होंने कहा कि पिछले कुछ सालों में सोशल मीडिया के सदस्यों के डाटा के दुरूपयोग को रोकने के लिए सोशल मीडिया नेटवर्क ने पर्याप्त प्रयास नहीं किया।


लंदन की कैंब्रिज एनॉलेटिका कंपनी पर कथित रूप से फेसबुक के सदस्यों के डाटा का दुरूपयोग करने का आरोप है।कैम्ब्रिज एनालिटिका की मूल कंपनी एससीएल और डॉ. अलेक्जेंद्र कोगान ने डेटा एकत्र करने की इस ऐप को विकसित किया था। व्यक्तिगत डेटा की चोरी होने के दावों के बाद ये घोटाला सामने आया । इसका दुरुपयोग अमेरिकी राष्ट्रपति अभियान और यूरोपीय संघ के जनमत संग्रह के परिणाम को प्रभावित करने के लिए किया गया था।


इस सिलसिले में ज़करबर्ग ने सीधे तौर पर कंपनी की गलती स्वीकार करते हुए कहा है, कि यूजर्स के डेटा की सुरक्षा करने की जिम्मेदारी हमारी है तथा ग्राहकों के डेटा की सुरक्षा करना उनकी जिम्मेदारी है। ज़करबर्ग ने कहा कि यह फ़ेसबुक और उन लोगों के साथ भी विश्वासघात है, जो अपनी जानकारियां हमारे साथ शेयर करते हैं।
अब ज़करबर्ग ने जो कुछ कहा है उससे सभी संतुष्ट हो यह ज़रुरी नहीं है। इसमें कोई शक नहीं, कि निजी डेटा की सुरक्षा एक अहम मुद्दा है। उपयोगकर्ताओं की व्यक्तिगत जानकारी के बदले में सामाजिक संपर्क प्रदान करनेवाला एक नया तंत्र हाल के वर्षों में उभरकर आया है। इसमें जो कंपनियां भागधारक है उनके छिपे इरादें समझना हर एक के बस की बात नहीं है। खासकर चुनावों के लिए मतदाताओं को लक्षित कर उनके मतों के रूझान को प्रभावित करना।


लेकिन यहां सवाल यह है, कि जिस हमाम में सब नंगे है उसमें केवल ज़करबर्ग को निशाना क्यों बनाया जा रहा है? क्या इसलिए कि फेसबुक के चलते ही अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की जीत होने का सिद्धांत लिबरलों ने मन ही मन पक्का मान लिया है?



गुगल से लेकर एप्पल तक हर कंपनी आपके डाटा का उपयोग करने पर तुली है। यहां हर कोई आपके वर्तमान को कब्ज़े में लेकर भविष्य को आकार देने का प्रयास कर रहा है। गुगल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ऐरिक श्मिट ने सन् 2007 में फाइनेंशियल टाईम्स के साथ हुए एक इंटरव्यू में कहा था, कि “हमारा लक्ष्य गुगल उपयोगकर्ताओं को उस योग्य करना है कि वह ‘कल मुझे क्या करना चाहिए?’ और ‘मुझे कैसा काम करना चाहिए?’ जैसे प्रश्न पूछ सकें।” आज गुगल एसिस्टंट जैसे एप के जरिये यह लक्ष्य काफी हद तक साध्य किया जा चुका है।


श्मिट ने 2010 में वॉल स्ट्रीट जर्नल से एक अन्य साक्षात्कार में कहा था, “मुझे वास्तव में लगता है कि ज़्यादातर लोग यह नहीं चाहते कि गुगल उनके सवालों का जवाब दे, बल्कि वे चाहते हैं कि गुगल उन्हें यह बताए कि उन्हें आगे करना क्या है।” अब अगर उपयोगकर्ता की भूतकालीन और वर्तमानकालीन जानकारियां गुगल के पास होगी ही नहीं तो वह भविष्य की जानकारी क्या खाक देगा?


इसी ऐरिक श्मिट ने दिसम्बर 2010 में कहा था, कि “अगर आपके पास कुछ ऐसा है जो आप किसी और से जताना नहीं चाहते, तो शायद पहले स्थान में आपको ही वह नहीं करना चाहिए। अगर आपको वास्तविकता में वैसी गोपनियता चाहिए, तो फिर सच्चाई यह है कि खोज इंजन — गूगल सहित — कुछ समय के लिए वह जानकारी बनाए रखते हैं और यह महत्त्वपूर्ण है, उदाहरण के लिए, क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका में हम सब पैट्रियट एक्ट (देशभक्त अधिनियम) के अधीन हैं और यह सम्भव है कि वह सब जानकारी अधिकारियों को उपलब्ध करायी जा सकती है।”


निजता के अधिकारों के लढ़नेवाले संगठन प्राइवेसी इंटरनेशनल ने गूगल को “गोपनीयता का प्रतिपक्षी” की संज्ञा दी है। क्या कोई गुगल के बिना इंटरनेट का उपयोग करने की आज सोच सकता है?


यह साइबर दुनिया है, यहां आपका डाटा ही असली मुद्रा है। इस मुद्रा का आदानप्रदान किए बिना यह बाजार चल ही नहीं सकता। इसमें से काफी सारी मुद्रा चोरी से ही आती है, यह बात साइबर दुनिया में बाज़ार लगानेवाला हर शख्स जानता है। ज़करबर्ग की गलती इतनी है कि उसका सिक्का ज्यादा चलता था और उसकी चोरी पकड़ी गई।

Wednesday, April 11, 2018

राहुल गांधी और दलितों का 'महाभोज'

मन्नू भंडारी की एक प्रसिद्ध कृति है 'महाभोज'। किसी दलित व्यक्ति की मृत्यू, उस पर खड़ा उठनेवाला राजनैतिक बंवड़र और राजनैतिक दलों की गुलाटियां, इनका गजब का चित्रण भंडारीजी ने किया है। इस पुस्तक का सरसरी पठन करनेवाला भी हतप्रभ रह जाता है, कि किस तरह लेखक (लेखिकाएं) समय से आगे जाकर देख सकती है।


उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में स्थित सरोहा नामक गांव में विधान सभा की एक सीट के लिए चुनाव सर पर है। बिसेसर तथा बिसू नामक एक कार्यकर्ता दलित की हत्या होती है। बिसेसर हरिजन बस्ती के अपने लोगों न्याय दिलाने के लिए लढ़नेवाला व्यक्ति है। उसकी मौत के बाद उसका दोस्त बिंदेश्वरी उर्फ़ बिंदा उसके प्रतिरोध की विरासत आगे ले जाना चाहता है। लेकिन बिंदा को भी राजनीति और अपराध के चक्र में फांसकर जेल में डाला जाता है। उसके बाद एक राजनीति की बिसात पर बिसात बिछती जाती है और सत्ताधारी वर्ग, सत्ता प्रतिपक्ष, मीडिया और नौकरशाही जैसे कई खिलाड़ी जुड़ते जाते है। यह एक नंगी तस्वीर है, कि किस तरह शासन और तंत्र मिलकर दलितों, गरिबों को कुचलते है। उनका हक मारते है और उन्हें न्याय दिलाने के नाम पर अपनी जेबें भरते है।



जनवरी 2016 में हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या ने की, तबसे जो माहौल लिबरलों और मीडिया ने बनाया है वह बरबस 'महाभोज' की याद दिलाता है। सेकुलरिज्म का दम भरनेवाले दलों और वाम-झुकाववाली मीडिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी, कि भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में दलितों पर अत्याचार चरम पर है और यह एक पूर्णतः जातिवादी शासन है। ऐसे लोगों के लिए यह बताना उचित होगा, कि मन्नू भंडारीजी का यह उपन्यास सर्वप्रथम 1979 में रचित था। यह वर्ष वह है जब भाजपा का वर्चस्व छोड़ो, उसका अस्तित्व भी नहीं था। वह अपने पूर्ववर्ती चोले यानि जन संघ के रूप में भी नहीं थी। वह जनता पार्टी नामक एक कुनबे का हिस्सा थी जिसमें हर रंग के दल शामिल थे।


स्पष्ट है, कि दलितों पर अत्याचार हमारे देश का दुःखद वास्तव है। इसमें कांग्रेस और भाजपा के शासन में फर्क करना उचित नहीं होगा। बल्कि सच्चाई यह है, कि अगड़ी जातियों के वर्चस्व के कारण कई बार कांग्रेस ने दलित अत्याचार में बड़ी भूमिका निभाई है। जिस समय भंडारीजी का 'महाभोज' आया था, लगभग उसी समय महाराष्ट्र में दलित पैंथर का उदय हुआ था। राज्य के कई गांवों में दलितों पर हुए अत्याचार के खिलाफ एक उग्र विद्रोह के रूप में यह आंदोलन खड़ा हुआ था। पैंथर कार्यकर्ता गांव-गांव जाकर दलित बस्तियों से भेंट करते और अत्याचारियों से दो हाथ करते।


इस सारे इतिहास से बेखबर होकर, या कहें कि उसकी तरफ आंखें मूंदकर, दलितों पर लगातार हो रहे अत्याचार के मुद्दे पर कांग्रेस ने देशव्‍यापी उपवास शुरू किया। उसमें जो फजीहत उसकी हुई है वह बिल्कुल स्वाभाविक है। जिसका अपना गिरेबां साफ नहीं वह और को क्या उपदेश देगा?


धरना और उपवास के पहले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एक रेस्तरां में खाना खाते हुए देखे गए। रेस्तरां में कांग्रेस नेताओं की छोले भटूरे खाती हुई तस्वीर भी वायरल हुई। कांग्रेस नेता अरविंदर सिंह लवली ने तो बाकायदा मान लिया, कि ये तस्वीरें सोमवार सुबह से पहले की है। उससे पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को लेकर भी कांग्रेस को शर्मिंदगी उठानी पड़ी। यह उपवास एक उपहास बनकर रह गया और इसके लिए सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस जिम्मेदार है।


कांग्रेस की इस नौटंकी ने अगर कुछ साबित किया है तो यह, कि वह अभी भी दिखावे की राजनीति औरलोगों की भावनाओं से खेलने में अभी भी नहीं हिचकिचाती है। राजनीतिक दल इस खेल में माहीर तो थे ही, वे अब बेशर्मी की हदें भी पार कर गए है। एससी-एसटी एक्ट पर जो फैसला दिया है वह उच्चतम न्यायालय ने दिया है। लेकिन राहुल गांधी इसका ठिकरा भाजपा के सर पर फोड़ रहे है।वैसे कांग्रेस यह भी बताएं, कि आखिर वह इतनी ही दलित हितैषी थी तो उसके 40 वर्षों के शासन के पश्चात् इस एससी-एसटी एक्ट को 1989 में बनाने की जरूरत ही क्यों पड़ी?
तात्पर्य यह, कि कांग्रेस को सचमुच दलितों की चिंता होती तो इस 'महाभोज' का आयोजन नहीं होता।


यह तो बस कर्नाटक विधानसभा चुनाव की कार्यशाला और सन 2019 के आम चुनाव का अभ्यास है, बस!

Wednesday, April 4, 2018

महाभियोग – भयतंत्र का एक पैंतरा

भारत के प्रधान न्यायाधीश ( सीजेआई) दीपक मिश्रा पर महाभियोग चलाने की पहल सरासर पक्षपातपूर्ण राजनीति से प्रेरित है। यह एक अशुभ और अनुचित कदम है। इससे हासिल तो कुछ होनेवाला नहीं है, लेकिन एक संवैधानिक संस्था के सार्वजनिक रूतबे पर यह जरूर प्रहार करेगा। इस तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं पर टूटते विश्वास में ही इजाफा होगा। हमारे सार्वजनिक जीवन में मुठ्ठीभर संस्थाएं बची है जिनकी ओर अभी भी इज्जत से देखा जाता है और उसी इज्जत को तार-तार करने की यह शगल है। यह पहला मौका है, जब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग की तैयारी हो रही है। इससे पहले उच्च अदालतों के दो जजों के खिलाफ महाभियोग लाया गया था, लेकिन उसे पास नहीं कराया जा सका।


हमेशा की तरह इस ध्वंसकार्य का नेतृत्व कांग्रेस पार्टी ही कर रही है, हालांकि इसके लिए उसके पास कोई पुख्ता वजह नहीं है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार इस प्रस्ताव पर विपक्ष के कई दलों के नेताओं ने हस्ताक्षर किए हैं। इन दलों में राकांपा, वामदल, तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस भी शामिल हैं। कांग्रेस द्वारा लगाए गए आरोप न केवल बहुत महीन बल्कि बेजान भी है। कानून और नैतिकता की कसौटी पर वे एक पल भी नहीं ठहर सकते। चाहे सीजेआई ने विशेष न्यायाधीशों को मामले सौंपने के लिए अपनी विशेष शक्ति का इस्तेमाल किया हो या नहीं अथवा उनमें से कुछ की सुनवाई खुद करना पसंद किया हो, यह महाभियोग का कारण नहीं हो सकता।


अपने राजनीतिक भविष्य से चिंतित इन दलों का सबसे बड़ा ऐतराज यह है, कि न्या. मिश्रा राजनीतिक रूप से संवेदनशील एक मामले की सुनवाई खुद कर रहे है। इसलिए उनके विरोधियों का बौखलाना स्वाभाविक है। लेकिन इससे उनके आरोपों को वजन मिलने का कोई कारण नहीं है। बल्कि सीजेआई ने किसी विशेष मामले को अपने पसंद की किसी दूसरी पीठ पर निर्दिष्ट करने के बजाय खुद सुना इस तरह का आरोप लगाकर ये लोग इसी तर्क को बल देते है, कि वह दूसरा बेंच इनके द्वारा फिक्स था। एक मेडिकल कॉलेज से जुड़े मामले में राहत देने में मुख्य न्यायाधीश शामिल थे, इस आरोप में भी कोई दम नहीं है।



इस महाभियोग के प्रस्तावकों का संपूर्ण ध्यान सरकार को शर्मिंदा करने के लिए न्यायपालिका का उपयोग करने पर है, जबकि राजनीतिक किचड़-उछाल के लिए न्यायपालिका का उपयोग न हो, यह सुनिश्चित करने के लिए सीजेआई प्रयास कर रहे है। वैसे न्या. मिश्रा का रिकार्ड शानदार रहा है। वे उस पीठ का हिस्सा थे जिसने 16 दिसंबर को हुए सामूहिक बलात्कार मामले में चार दोषियों को मौत की सजा की पुष्टि की थी और सिनेमा हॉलों में राष्ट्रगान को अनिवार्य बनाने का आदेश पारित किया था। न्यायमूर्ति मिश्रा वर्तमान में उस पीठ की अध्यक्षता कर रहे हैं जो कावेरी तथा कृष्णा नदी जल विवाद, बीसीसीआई सुधार और सहारा मामले समेत कई अन्य मामलों की सुनवाई कर रही है। न्यायमूर्ति मिश्रा 2 अक्तूबर 2018 तक अपने पद पर सेवाएं देनेवाले है और विपक्ष चाहता है, कि इस दौरान राम जन्मभूमि मामले की सुनवाई न हो। कपिल सिब्बल जैसे नेता तो भरी कोर्ट में कह चुके है, कि सन 2019 तक इस मामले को टाला जाएं। गलती से भी इस मामले का फैसला हिंदूओं के हक में हुआ, तो इसका फायदा भाजपा को होगा इसी ड़र से सभी सेकुलर पार्टियां सहमी हुई है।


स्पष्ट है, कि वे किसी भी तरह न्या. मिश्रा को इस मामले में आगे बढ़ने से रोकना चाहती है। महाभियोग का पैंतरा बस इसी भयतंत्र का एक हिस्सा है। बार काउंसिल के कुछ सदस्यों की कांग्रेसधर्मिता छिपी हुई नहीं है। सीजेआई मिश्रा अगर उनके इशारों पर चलने के लिए हामी भर देते, तो उन पर महाभियोग नहीं चलाया जाता। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने सरकारविरोधी रूख में एक सहभागी बनने हेतु सीजेआई को धमकाने के लिए संसद की उस शक्ति का दुरुपयोग किया जा रहा है जिसके तहत गलतियां करनेवाले न्यायाधीशों को सज़ा दी जाती है। उम्मीद है कि सीजेआई मिश्रा अपनी भूमिका पर कायम रहेंगे और इस तरह के ब्लैकमेल के आगे नहीं झुकेंगे।

Friday, March 30, 2018

Beyond Lingayat Hype, Something Else May Haunt Siddaramaiah

Even as political pundits are engaged in heated debate over what the possible impact of Chief Minister Siddaramaiah's decision to accord separate status of religion to Lingayats in Karnataka would be, there is something else that may haunt him in the long run. And that is large number of farmer's suicide in the state. Karnataka, one of the most naturally abundant states in India, is facing a severe crisis of droughts and weak agriculture. According to state's own statistics department, as many as 3,515 farmers in Karnataka have committed suicide between April 2013 and November 2017. Of these, 2,525 suicides were due to drought and farm failure, as per the state agriculture department said.


According to a PTI report in December 2017, 3,515 farmers were reported to have committed suicide from April 2013 to November 2017; from April 2008 to April 2012, as many as 1,125 farmers were reported to have committed suicide.Out of the 3,515 suicide cases reported, the agriculture department accepted 2,525 cases as being due to drought and crop failure, the data said.


Agriculture Director B.Y. Srinivas told mediapersons that as many as 112 suicide cases were pending for the want of ratification by a state government panel since 2013. The highest number of suicides (1,483) were reported during 2015-16 and lowest (106) during 2013-14, Srinivas said. "Sugarcane growers top the list of suicides, followed by cotton and paddy cultivators," and


"As many as 1,332 cases have been registered against money lenders, of which 585 have been arrested in last three years," were the statements attributed to him.



The farmers who committed suicides included the cultivators of coconut, paddy, areca nut, cash crops and various others. It is just behind Maharashtra in terms of farmers in distress. The signs of this distress are evident even now through the numerous marches that have been taken out in various parts of the state during last few years. The Maharashtra is still in rough weather on resolving the agrarian crisis that has engulfed the state and dented the state's image in a big way.


It is a common knowledge that the Siddaramaiah government has failed to address the farmers' plight effectively. So obviously enough, the government is pushed to the corner over the issue. And hence, Siddaramaiah finds it necessary to conjure up issues that have more sentimental appeal than the practical one. Thus, imposition of Hindi and separate flag becomes more pertinent issue than the rising number of farmers' suicides. Separate Lingayat religion becomes more important than the environmental degradation in cities like Bangalore.


The state government has faced flak for its utter failure in resolving many issues. Moreover, the pulbic opinion is largely becoming hostile to the government due to its failure in arresting the criminialisation of politics. And just ahead of the assembly elections, it has tried to divide Lingayats and Veerashaivas, also Lingayats and other communities, by announcing minority status for them. All this manuevering may bring headlines and mileage to the Congress, but it cannot ensure victory in the electoral fray.

Monday, March 26, 2018

वजूद बचाने की कवायद

Rahul Gandhi Siddaramaiah karnataka

कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी अपना वजूद बचाने के लिए ऐसे हाथ पर मार रही है जैसे कोई डूबनेवाला व्यक्ति पानी में मारता है। जब से नरेंद्र मोदी ने केंद्र में कमान संभाली है तबसे कांग्रेस के हाथ से एक के बाद एक राज्य फिसल चुके हैं और वह अच्छी तरह से जानती है, कि यह इकलौता बड़ा राज्य उसके पास बचा है। अब कि जब इस राज्य के विधानसभा चुनाव दस्तक दे रहे हैं तो विभिन्न गुटों की लामबंदी करने में मुख्यमंत्री सिद्दरामय्या कोई कसर नहीं छोड़ रहे है। उन्होंने इंदिरा कैंटीन जैसी योजनाओं के द्वारा गरीबों को अपनी ओर खींचने की कोशिश की। उसके बाद झंडे और धर्म के बहाने वोट बैंक बनाने की कोशिश की।


आज कर्नाटक में सिद्दरामय्या वही खेल खेल रहे है जो तमिलनाडु में कभी द्रविड़ पार्टियां खेला करती थी। वह राज्य के लोगों में दूसरे राज्यों के लोगों के लिए असंतोष पैदा कर रहे हैं जिसके लिए खासकर उत्तर भारतीय राज्यों को निशाना बनाया जा रहा है। इसकी शुरुआत मेट्रो रेलवे में हिंदी को थोपने के बहाने हुई। उसके बाद राज्य के अलग झंडे के नाम पर अलगाववाद पैदा किया गया। इन दोनों में मामलों में परिदृश्य ऐसे बनाया गया मानो केंद्र और राज्य सरकार आमने सामने आए हो। उसके बाद झंडे के नाम सनसनी बनाई गई और कन्नडभाषियों की भावनाओं को प्रज्वलित करने की कोशिश की गई।


कर्नाटक का अपना एक लाल और पीले रंग का ध्वज है लेकिन उसे आधिकारिक मान्यता नहीं है। राज्य में तमाम बड़े जनआयोजनों में इस झंडे का इस्तेमाल किया जाता है। इस झंडे को स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या अन्य सरकारी कार्यक्रमों में सरकार द्वारा नहीं फहराया जा सकता है। राज्य स्थापना दिवस जैसे अवसरों पर यह झंडा लहराया भी जाता है लेकिन उसे कानूनी मान्यता नहीं है। वैसे देश में जम्मू कश्मीर के अलावा अन्य किसी राज्य का अपना झंडा नहीं है।


सिद्धरामय्या यहीं पर नहीं रूके। उन्होंने लिंगायत पंथ को अलग धर्म के रूप में मान्यता देने की घोषणा की है। वीरशैव लिंगायत समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा देने की सिफारिश राज्य ने केंद्र के पास भेजी है। लिंगायत समुदाय को अलग धर्म का दर्जा देने से संबंधित नागमोहन दास कमेटी की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए कर्नाटक सरकार ने यह फैसला किया था। हालांकि इस आठ सदस्यीय समिति में एक भी लिंगायत व्यक्ति नहीं था।


राज्य मे लिंगायत समुदाय की जनसंख्या 17% है और यह वर्ग भारतीय जनता पार्टी का समर्थक माना जाता है। खासकर भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार बी. एस. येडियुरप्पा खुद लिंगायत है और इस समुदाय पर उनकी अच्छी खासी पकड़ है। विशेषकर उत्तरी कर्नाटक में भाजपा को इस समुदाय का समर्थन प्राप्त है।


सौभाग्य से किसी समुदाय विशेष को अलग धर्म का दर्जा देने के अधिकार राज्य के पास नहीं है। इसलिए मंजुरी के लिए यह प्रस्ताव केंद्र के पास भेजा गया है। इसमें खास बात यह है, कि पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने यही मांग सन 2013 में नकार दी थी। यह स्पष्ट है, कि कांग्रेस किसी भी कीमत पर कर्नाटक का किला फतह करना चाहती है और उसके लिए हिंदू मतो में विभाजन करना उसकी प्राथमिकता है। केंद्र अगर इस मांग को मंजूर करता है तो सिद्दरामय्या इसे अपनी जीत करार दे दे सकते हैं और अगर न करेंतो उसे भाजपा का लिंगायत विरोध बता सकते हैं। यानी चित भी मेरी और पट भी मेरी।


कर्नाटक में कांग्रेस शासन का रिकॉर्ड कुछ खास प्रभावित करने वाला नहीं है। इसलिए जनता की भावनाओं को भड़का कर मतों की रोटी सेंकने का प्रयास कांग्रेस कर रही है। क्या उनके ये प्रयास रंग लाएंगे और कांग्रेस को फिर से सत्ता में लौटायेंगे, यह तो वक्त ही बताएगा।

Thursday, March 22, 2018

हलकटपणाची हद्द!

अखेर विधानसभा निवडणुकीच्या ऐन तोंडावर कर्नाटकचे मुख्यमंत्री सिद्धरामय्या यांनी लिंगायत हा धर्म असल्याचे जाहीर केले आहे. लिंगायत धर्मासंबंधी सरकारने नेमलेल्या न्या. नागमोहनदास समितीच्या शिफारशी मान्य करून हा निर्णय घेण्यात आला आहे. अर्थात एखाद्या समुदायाला स्वतंत्र धर्म म्हणून जाहीर करण्याचे अधिकार अद्याप तरी केंद्राकडे आहेत. त्यामुळे हा प्रस्ताव केंद्र सरकारकडे मंजुरीसाठी पाठविण्यात येणार आहे. केंद्राने तो स्वीकारला (ते शक्य नाही) तर सिद्धरामय्यांची चित आणि नाकारला (ही शक्यता जास्त) तर त्यांचाच पट!


लिंगायत हा धर्म असल्याचा विषय गेल्या काही महिन्यांपासून गॅसवर तापवत ठेवलाच होता. स्वतंत्र लिंगायत धर्माच्या मागणीसाठी कर्नाटक व महाराष्ट्रात मोर्चे निघाले होते. कर्नाटकातील काँग्रेस सरकारने लिंगायत समुदायाला केवळ स्वतंत्र धर्मच नव्हे, तर अल्पसंख्याक दर्जा देण्याचीही शिफारस केली आहे. दोन गटांमध्ये जातीय, प्रादेशिक किंवा धार्मिक वाद पेटविण्याची एक स्वतंत्र कला काँग्रेसने विकसित केली आहे.


गेल्या लोकसभा निवडणुकीच्या आधी 2013 साली काँग्रेसने अशाच प्रकारे आंध्र प्रदेश आणि तेलंगाणात पेटवापेटवी केली होती. त्याचे परिणाम आजही या दोन राज्यांना भोगावे लागत आहेत. त्याच्याही आधी सच्चर अहवालाच्या नावाखाली मुस्लिमांना उचकावण्याचे प्रयत्न झालेच होते. जातीय दंगली प्रतिबंधक कायद्याच्या विरोधात विधेयकाच्या नावाखालीही बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक अशा रीतीने झुंजविण्याचा डाव होताच. त्यातच आता राजकीय लाभासाठी ही नवी खेळी.


लिंगायत हा समुदाय कर्नाटकातील एकूण लोकसंख्येपैकी 17% असून तो मतदारांमध्ये सर्वात मोठा हिस्सा आहे. लिंगायत समुदायातील वीरेंद्र पाटील या मुख्यमंत्र्याला काँग्रेसने 1990 मध्ये अत्यंत मानहानीकारक पद्धतीने काढले होते (पक्षाच्या नेहमीच्या पद्धतीने). तेव्हापासून हा समुदाय काँग्रेसच्या बाजूला गेला, खासकरून उत्तर कर्नाटकमध्ये. काही काळ या समुदायाने रामकृष्ण हेगडे यांच्या नेतृत्वाखालील जनता परिवाराला साथ दिली आणि त्यानंतर भारतीय जनता पक्षाला. गेल्या अनेक निवडणुकांमध्ये या समुदायाने भाजपला साथ दिली. दहा वर्षांपूर्वी दक्षिण भारतात पहिल्यांदा कमळ उगविले होते त्यामागे याच समुदायाचा पाठिंबा होता, असे मानले जाते. येडियुराप्पा यांच्या रूपाने या समुदायातील एक व्यक्ती भाजपचे नेतृत्व करत आहे. भाजपची हीच पारंपरिक मते फोडण्यासाठी काँग्रेसने हा निर्णय घेतला आहे. तेही विधानसभा निवडणुकीला काही दिवस शिल्लक असताना!


अर्थात लिंगायत धर्म हाही काही एकजिनसी गट नाही. त्यात वीरशैव आणि लिंगायत असे दोन भाग आहेत आणि दोन्ही गटांमध्ये या मुद्द्यावर एकमत नाही. न्या. नागमोहनदास यांच्या समितीच्या अहवाल स्वीकारू नये. स्वतंत्र धर्म म्हणून मान्यता द्यायचीच असेल तर वीरशैव-लिंगायत असे नाव द्यावे, अशी मागनी वीरशैव गटाने केली होती. कालच्याच घोषणेनंतर गुलबर्गा येथील वल्लभभाई पटेल चौकात वीरशैव आणि लिंगायत समुदायातील कार्यकर्त्यांमध्ये तुंबळ हाणामारी झाली. लिंगायत धर्माला विरोध करून वीरशैव नेते आणि कार्यकर्त्यांनी घोषणबाजी केली. तेव्हा लिंगायत धर्मवादी कार्यकर्त्यांनी त्यांना विरोध केला आणि संघर्ष घडला.


या दोन गटांतील मतभेद दूर करण्यासाठी राज्य सरकारने लिंगायत धर्मात वीरशैव समुदायाचाही समावेश केला आहे. परंतु त्याचा फायदा होण्याची फारशी शक्यता नाही. कारण त्याच्या विरोधात आवाज वीरशैव गटानेच दिला आहे. 'स्वतंत्र लिंगायत धर्माला मान्यता देण्याची शिफारस राज्य सरकारने केंद्राकडे केली आहे. समाजाला विभाजित करण्याचा प्रयत्न करणाऱ्यांविरुद्ध धर्मयुद्ध सुरू करावे लागेल,' असे बाळेहान्नूर येथील रंभापुरि पीठाचे महाराज वीरसोमेश्वर शिवाचार्य स्वामीजी यांनी म्हटले आहे. वीरशैव-लिंगायत धर्मियांना विभाजित करणाऱ्या राजकारण्यांना (येथे काँग्रेस असे वाचावे) धडा शिकवण्याचे आवाहन त्यांनी मतदारांना केले आहे. "आमच्या धर्माचे विभाजन झाल्यास आम्ही न्यायालयात जाऊ," असा इशाराही त्यांनी दिला आहे.


मुख्यमंत्रि सिद्धरामय्या यांनी वीरशैव व लिंगायत यांना स्वतंत्र धर्म जाहीर करण्यामागे छुपा अजेंडा असल्याचा आरोप माजी मुख्यमंत्री व धर्मनिरपेक्ष जनता दलाचे अध्यक्ष एच. डी. कुमारस्वामी यांनीही केला आहे. 'समाजाला एकत्र करणे आणि चालवणे ही सरकारची जबाबदारी असते. धार्मिक विषय ठरविण्याचे काम धर्माधिकाऱ्यांचे असते. या मुद्द्यावरून आता संघर्ष सुरू होईल आणि त्याचे परिणाम मुख्यमंत्र्यांना भोगावे लागतील,' असे त्यांनी म्हटले आहे.


थोडक्यात म्हणजे हिंदीविरोधा आंदोलनाला फूस देण्यापासून सुरू झालेला सिद्धरामय्या यांचा प्रवास आता थेट हिंदूंमध्ये फूट पाडण्यापर्यंत आला आहे. हलकटपणाची ही हद्द आहे. सत्तेसाठी केवढा हा अनाचार!

मोदी, ट्रंप और पुतिन- जनमत के ठेकेदारों की एक और हार

Vladimir Putin victory

रूस के चुनावों में अभूतपूर्व जीत हासिल कर व्लादिमीर पुतिन ने फिर से अपने नेतृत्व का लोहा मनवा लिया है। सारी दुनिया के जनमत के ठेकेदारों के गाल पर यह एक और जोरदार तमाचा है। अगर 2018 के रूसी चुनाव का नतीजा कुछ साबित करता है तो वह यह, कि कलमघिस्सुओं के मतों में और प्रत्यक्ष जनता में एक जोरदार खाई बन चुकी है जिसे पाटना अब नामुमकिन लगता है।


ठेकेदारों को अब तो मान लेना चाहिए, कि पुतिन की लोकप्रियता असली और प्रामाणिक है। पश्चिमी देशों और खासकर लिबरल कैम्प से इन चुनावों को कलंकित करने की चाहे जितनी भी कोशिश की गई हो, लेकिन इसको नकारना की यह लोगों की इच्छा है अपने आप को धोखा देना है।


दुनिया में कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था सही नहीं है, न रूस की, न ब्रिटेन की और न ही अमेरिका की। खासकर सन 2000 में जिस तरह जॉर्ज बुश ज्यू. विवादित पद्धति से चुनकर आए थे और जिस तरह पिछले एक वर्ष से मीडिया पंडित अपने ही अध्यक्ष पर संदेह व्यक्त कर रहे है, उसे देखते हुए तो यह कथन और भी वास्तव लगने लगता है।


पुतिन ने सन 2012 में 63.6% मत हासिल किए थे जबकि उस समय 65.25% मतदान हुआ था। इस बार 76.68% मतदान हुआ था जिसमें से पुतिन को 67.68% से अधिक मत मिलें। अपने लोगों पर पुतिन की इस हुकूमत को पश्चिमी परामर्शदाता पचा नहीं पाते। इनमें से कईयों ने तो उनकी तुलना तानाशाह जोसेफ स्टालिन से तक की है। भारत में भी कई पश्चिम-आधारित लेखकों ने इसी लकीर को आगे खिंचते हुए पुतिन की निंदा करने में कोई कोताही नहीं बरती।


वास्तव में पश्चिमी देशों को पेटदर्द होने का कारण यह है, कि सोवियत रूस के पतन के बाद उन्हें लगने लगा था कि रूस अब समाप्त हो गया। सन 1990 के दशक के दौरान रूस ने मुक्त बाजार प्रणाली अपनाई। उस प्रयोग में पटरी पर आने और सोवियत युग की अपनी ताकत को पुनः पाने के लिए रूस को कई दशक लगेंगे, ऐसी प्रत्याशा थी। हालांकि रूस ने बड़ी ही तेजी से अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त की। इस रिकवरी के लिए काफी हद तक जिम्मेदार व्यक्ति था व्लादिमीर पुतिन जिसने राष्ट्रवाद, व्यावहारिकता और प्रागतिकता के मार्ग पर चलते हुए राष्ट्र का गौरव लौटाया। परिणाम यह है, कि लोकप्रियता में पुतिन की बराबरी कोई नहीं कर सकता।


यहां याद रखना होगा, कि पुतिन के क्रेमलिन में आने से पहले रूस सामाजिक रूप से तितर-बितर हो गया था। करोड़ों लोग आर्थिक बिभिषिका से गुजर रहे थे। जबकि कुलीन वर्गों के कुछ लोग और उनके गुर्गे देश की संपत्ति लूटने में व्यस्त थे। अमेरिकी विद्वान और प्रसिद्ध रूस विशेषज्ञ स्टीफन एफ कोहेन ने इस स्थिति का वर्णन "शांतिपूर्ण समय में किसी प्रमुख राष्ट्र पर आई हुई सबसे खराब आर्थिक और सामाजिक विपत्ति" के रूप में किया था।


पुतिन ने न केवल यह लूट रोकी बल्कि पश्चिमी देशों की आंखों में आंख ड़ालने का माद्दा भी रूसी लोगों में तैयार किया। आज आलम यह है, कि अमेरिकीयों को यह डर लगता है, कि अमेरिकी अध्यक्ष भी रूस (या कहें पुतिन) चुनवाकर ला सकता है।


अतः यह समझना मुश्किल नहीं है, कि रूस में पुतिन की लोकप्रियता इतनी क्यों चढ़ती है। साथ ही पश्चिमी पत्रकारों, लेखकों और कार्यकर्ताओं में उनको लेकर इतनी घृणा क्यों है, यह समझना भी मुश्किल नहीं है। क्योंकि उनके नेतृत्व में रूस अपने पश्चिमी समकक्षों की तुलना में एक निम्न संस्कृति और निम्न शक्ति के रूप में जीने के लिए तैयार नहीं है।


भारत में नरेंद्र मोदी, अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप और अब रूस में व्लादिमीर पुतिन। इन तीनों नेताओं में एक समानता यह है, कि मीडिया और विचारक कहे जानेवाले वर्ग का इन्हें कभी समर्थन नहीं मिला। लेकिन अपने लोगों पर पकड़ इन लोगों ने बार-बार साबित की है। ये अलग बात है, कि उनकी इस उपलब्धि को खुले दिल से दाद देने की दरियादिली भी वे नहीं दिखा सके है। यह ऐसा ही है, जैसे कोई व्यक्ति अंधेरे कमरे में बैठा हो और रोशनी को नकारे।